बाल कहानी : (Hindi Kids Story) छोटी सी भूल- संजय की खुशी का ठिकाना न था। वह आठवीं कक्षा की परीक्षा में प्रथम आया था। खेल कूद में भी उसे कई पुरस्कार मिले थे। स्कूल के हेडमास्टर साहब सक्सेना जी ने, पूरे स्कूल के सामने संजय की प्रशंसा की थी। पुरस्कार हाथ में लिए संजय सोच रहा था कि जब वह घर जाकर अपनी सफलता के बारे में अपने पिता जी को बताएगा तब वे कितने खुश होंगे।
संजय के पिता रामधन, गांव के छोटे से रेलवे स्टेशन पर सिगनल मैन थे। उनका काम था रेल के आने जाने पर सिगनल उठाना और गिराना। वे अपने काम पूरी लगन से करते थे और संजय को भी अच्छी अच्छी बातें सिखाते। उन्होंने सोचा था ‘स्वयं तो ज्यादा पढ़ न पाए परन्तु बेटे की शिक्षा में कोई कसर न छोड़ेगे। संजय ने भी अपने पिता के सपने साकार करने की ठान ली थी। वह जी तोड़ मेहनत करता। पूरे ध्यान से पढ़ता व अपने पिता का कहना मानता।
प्रेरणादायक बाल कहानी : सेवा का व्रत
घर जाकर संजय ने अपने पिता के पैर छुए व पुरस्कार दिखाए तो रामधन गदगद हो गए।
अगले दिन संजय नौवीं कक्षा में बैठा। नए अध्यापक से कक्षा का परिचय हुआ। अध्यापक ने कहा, बच्चोें अब तुम नौवीं कक्षा में आ गए हो। अब तुम पर ज्यादा जिम्मेदारियां होंगी तथा तुम्हें ज्यादा अनुशासन में काम करना होगा। मैं चाहता हूँ कि कक्षा का एक प्रतिनिधि चुन लिए जाए, जिससे हमें कक्षा को सुव्यवस्थित करने में आसानी हो। बोलो, किसे समझते हो तुम इस पद के योग्य?
कुछ छात्रों ने संजय का नाम लिया और सबने सहमति दे दी संजय माॅनीटर बन गया। अब उसे कक्षा की कुछ जिम्मेदारियां संभालनी पड़ती, छात्रों के अनुशासन रखना, उत्तर पुस्तिकाएं एकत्रित करना, श्यामपट साफ करना आदि। कक्षा की एक अलमारी में ताला लगाकर चाबी उसे दी गई। चाॅक का डिब्बा भी संजय को दे दिया गया, जिसे वह अलमारी में रखता और हर घण्टे में, अध्यापक को दो चार चाॅक निकाल कर दे देता। चाॅक खत्म होने पर उसे दफ्तर से नया डिब्बा मिल जाता।
संजय को गत्ते के डिब्बे में, बुरादे में रखी लम्बी-लम्बी चिकनी, सफेद चाॅक बहुत पसंद थी। एक बार जब संजय ने चाॅक का नया डिब्बा खोला तो सौंधी महकवाली संगमरमर चाॅक देख अपने को रोक न पाया और दो चाॅक उसने अपनी जेब में डाल ली।
लालच का नतीजा
अब तो संजय आए दिन चार चाॅक घर ले जाने लगा।
धीरे धीरे संजय की यह आदत सी बन गई। अपने मोहल्ले कें बच्चों पर वह रौब मारता था कभी कभी उन्हें भी चाॅक दे देता। मेरे पास चाॅक की कोई कमी नहीं। जितनी चाहूं ला सकता हूँ। मैं माॅनीटर हूँ कक्षा का। वह शान से कहता।
संजय के कारण कक्षा में चाॅक जल्दी जल्दी खत्म होने लगी और संजय को दफ्तर से नया डिब्बा भी जल्दी लाना पड़ता। एक बार चपरासी ने पूछा, क्या बात है तुम्हारी कक्षा में चाॅक ज्यादा खर्च क्यों हो रहे है।
यह सुन संजय पहले तो घबरा गया। फिर बोला, मैं क्या करूँ? हमारे अध्यापक श्यामपट पर बहुत अधिक लिखते हैं।
चपरासी चुप हो गया। अब संजय का साहस और भी बढ़ गया। वह बड़ी मात्रा में चाॅक उठाने लगा।
ऐसे ही एक दिन संजय छुट्टी के बाद अपने बस्ते में चाॅक छुपा रहा था कि एक अध्यापक अपना रजिस्टर ढूंढ़ते हुए वहां आ निकले। अचानक उन्हें देख चाॅक का डिब्बा उसके हाथ से गिर गया। अध्यापक को बात समझते देर नहीं लगी। वे उसे कान पकड़ कर सीधे सक्सेना जी के पास ले गए और सारी बात बताई।
सक्सेना जी ने कहा, बेटे मास्टर जी क्या कह रहे हैं?
क्या तुम सचमुच चाॅक चुरा रहे थे?
पर संजय को तो जैसे साँप सूंघ गया। वह कुछ न बोला, सक्सेना जी ने यह देख संजय को बिना कुछ कहे छोड़ दिया।
उस शाम संजय मोहल्ले के लड़कों के साथ गुल्ली डंडा खेल रहा था। उसका माथा ठनका हेडमास्टर साहब को इस समय मेरे घर क्या काम हो सकता हैं? वह खेल छोड़कर घर आ गया और छुपकर बातें सुनने लगा। जिसका डर था, वही हुआ। सक्सेना जी चाॅक वाली बात उसके पिता को बता रहे थे। रामधन को सारी घटना बताकर वे बोले, संजय जैसे होनहार छात्र से मुझे ऐसी आशा न थी। जरा आप उसे बुलाकर तो पूछिए।
पता नहीं उसे यह गंदी आदत कैसे पड़ गई? अभी तो मामूली चाॅक चुराता है, बाद में न जाने क्या करें।
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रामधन काफी देर सोचते रहे। उन्हें अपनी सारी उम्मीदों पर पानी फिरता नजर आ रहा था बोले, सक्सेना जी इसका जिम्मेदार शायद मैं ही हूँ। मैंने संजय को वैसे तो हमेशा अच्छी बातें सिखाई पर यह भूल गया कि उपदेश देने वाले को पहले सुधरना पड़ता है। मैं स्टेशन से घर आते हुए अक्सर थोड़े बहुत कोयले, जो रेल के इंजन में डालने के लिए स्टेशन पर पड़े होते थे, अपने घर की अंगीठी के लिए उठा लाता था। मैंने कभी इसे गलत नहीं समझा। आज पता चला कि मेरी छोटी सी भूल का कितना भयंकर परिणाम हो सकता है।
अब आप ही बताइए कि एक चोर दूसरे चोर को कैसे सीख दे। कहते कहते उनका गला भर गया।
दरवाजे के पीछे खड़ा संजय सब कुछ सुन रहा था। अपने पिता को इस हाल में देख वह आत्म ग्लानि से भर गया। वह बाहर निकल आया। बोला, पिताजी, आप ऐसा न सोचिए। गलती मेरी है, जो मैंने आपको इतना दुख पहुँचाया। मैं वचन देता हूँ कि भविष्य में आपको कभी ऐसी खबर सुनने को नहीं मिलेगी। सर, आप भी मुझे माफ कर दीजिए।
सक्सेना जी ने खुशी से उसे अपने सीने से लगा लिया।