प्रेरणादायक कहानी - गिलहरी से प्रेरणा

जी हा! आशा और निराशा दोनों सखियां प्रतिस्पर्धा की भावना से प्रेरित होकर जीवन-पथ पर निरन्तर दौड़ लगाती रहती हैं। कभी आशा आगे निकल जाती है तो कभी निराशा बाजी मार ले जाती हैं। जब आशा जीतने लगती है तो मनुष्य बहुत महत्त्वाकांक्षी हो जाता है। साथ ही अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिये वह जी-जान से परिश्रम करता है। वह सोचने लगता है। कि मेहनत के बल पर वह अवश्य अपनी मंजिल को पा लेगा। इसके विपरीत जब निराशा विजय होने लगती है। तो मनुष्य जीवन से हार मान लेता है। उसे अपने सभी प्रयत्न बेकार लगने लगते हैं।

By Lotpot
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Inspirational Story गिलहरी से प्रेरणा: जी हा! आशा और निराशा दोनों सखियां प्रतिस्पर्धा की भावना से प्रेरित होकर जीवन-पथ पर निरन्तर दौड़ लगाती रहती हैं। कभी आशा आगे निकल जाती है तो कभी निराशा बाजी मार ले जाती हैं। जब आशा जीतने लगती है तो मनुष्य बहुत महत्त्वाकांक्षी हो जाता है। साथ ही अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिये वह जी-जान से परिश्रम करता है। वह सोचने लगता है। कि मेहनत के बल पर वह अवश्य अपनी मंजिल को पा लेगा। इसके विपरीत जब निराशा विजय होने लगती है। तो मनुष्य जीवन से हार मान लेता है। उसे अपने सभी प्रयत्न बेकार लगने लगते हैं।

महात्मा बुद्ध सत्य की खोज में घर-बार त्याग कर निकल पड़े। उन्हें पूरी आशा थी कि वे अपने लक्ष्य को पा लेंगे। इसके लिये उन्होंने बहुत कष्ट सहे। कठिन से कठिन तप किये और फिर उनके जीवन में भी एक समय ऐसा आया कि वे निराश हो गये। उन्होंने सोचा कि वे कभी अपनी मंजिल को प्राप्त नहीं कर सकेंगे। वे व्यर्थ ही इधर-इधर घूम कर अपने समय को बर्बाद कर रहे हैं। उन्हें अब अपने घर लौट जाना चाहिए।

आखिर वे अपने घर की दिशा में चल दिये। मार्ग में उन्हें प्यास लगी। पास ही स्वच्छ जल की झील देख कर वे रूक गये। शीतल जल पीया और थोड़ी देर विश्राम करने की इच्छा से बैठ गये।

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अचानक उनकी दृष्टि एक गिलहरी पर पड़ी। गिलहरी बार-बार झील में जाती थी और झील से बाहर आकर अपनी पूँछ को झटक देती थी। काफी देर तक महात्मा बुद्ध उसकी इस क्रिया को देखते रहे। जब कुछ समझ न आया तो गिलहरी से पूँछने लगे। तुम व्यर्थ इतना परिश्रम क्यों कर रही हो?

मेरा परिश्रम बेकार नहीं जायेगा। मैं इस झील को सुखा कर ही रहूँगी। यह झील मेरे बच्चों को निगल गई हैं। मैं इससे अवश्य बदला लंूगी। गिलहरी ने दृढ़ निश्चत से कहा।

 पर गिलहरी रानी! तुम्हारे पास कोई बर्तन आदि तो है नहीं। अपनी पूँछ को गीला करके पानी की कुछ बूँदें झील के बाहर झाड़ देने से क्या वह सूख जायेगी? और फिर तुम्हारे जीवन की अवधि भी उतनी सी होती है। अधिक से अधिक दो साल।

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महात्मा बाल बुद्ध के प्रश्न के उत्तर में गिलहरी बोली महाराज इस झील का पानी सूखे या न सूखे, मैं तो जीवन भर इसे सुखाने का पूरा प्रयत्न करूँगी। और वह पुनः काम में लग गई।

गिलहरी के इस वाक्य से महात्मा बुद्ध के जीवन की दिशा ही बदल दी। वे सोचने लगे, यह छोटा सा जीव शक्ति एवं साधनों के अभाव में भी अपना काम पूरा करने के लिये कृृत-संकल्प है और मैं इससे भी अधिक बल-वृद्धि का स्वामी हो कर भी जीवन से निराश हो गया हूँ। उन्होंने पुनः अपनी दिशा बदल दी। अब वे घर से विपरीत दिशा की ओर बढ़े जा रहे थे। अपने लक्ष्य को पाने के लिये। उनके जीवन-पथ पर आशा-निराशा की दौड़ में पुनः आशा बाजी मार ले गई और निराशा हाथ मतली रह गई। मालूम नहीं गिलहरी बेचारी झील को सुखा पाई या नहीं उसके एक वाक्य से प्रेरित होकर महात्मा बुद्ध ने अपने लक्ष्य को पा लिया, सत्य को खोज लिया।

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