महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती (Maharishi Swami Dayanand Saraswati), आधुनिक भारत के महान चिन्तक, समाज-सुधारक व देशभक्त थे। उन्होंने 1874 में एक आर्य सुधारक संगठन - आर्य समाज की स्थापना की। वे एक संन्यासी तथा एक महान चिंतक थे। उन्होंने इंसान द्वारा बनाये गए दकियानुसी परम्पराओं के खिलाफ अपनी आवाज उठायी,जिसमे महिलाओं को वेद पढ़ने की इजाजत नहीं थी। उन्होंने जातिवाद के खिलाफ अपनी आवाज उठायी, जो इंसान के साथ उसके जन्म से जोड़ी जाती थी। उन्होंने पूरे शिक्षा संस्थान को बदलते हुए एंग्लो वैदिक स्कूल शुरू किये जिसमें भारतीय छात्रों को वेद के ज्ञान के साथ माॅडर्न अंग्रेजी शिक्षा भी दी जाती थी। हालाँकि सीधे तौर पर वह राजनीति के साथ कभी नहीं जुड़े थे लेकिन उनके राजनीतिज्ञ विचारों से कई राजनैतिक नेताओं को स्वंतंत्र हासिल करने के लिए प्रेरणा मिली।उन्हें महर्षि का सम्मान दिया गया और उन्हें माॅडर्न भारत का रचनाकार कहा जाता है।
शुरूआती जीवन और शिक्षा
दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी टंकारा में सन् 1824 में मोरबी (मुम्बई की मोरवी रियासत) के पास काठियावाड़ क्षेत्र (जिला राजकोट), गुजरात में हुआ था।उनके पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक अमीर, समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। दयानंद सरस्वती का असली नाम मूलशंकर था और उनका प्रारम्भिक जीवन बहुत आराम से बीता। आगे चलकर एक पंडित बनने के लिए वे संस्कृति, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए।उनके जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुईं, जिन्होंने उन्हें हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर के बारे में गंभीर प्रश्न पूछने के लिए विवश कर दिया। एक बार शिवरात्रि की घटना है। तब वे बालक ही थे। शिवरात्रि के उस दिन उनका पूरा परिवार रात्रि जागरण के लिए एक मन्दिर में ही रुका हुआ था। सारे परिवार के सो जाने के पश्चात् भी वे जागते रहे कि भगवान शिव आयेंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे। उन्होंने देखा कि शिवजी के लिए रखे भोग को चूहे खा रहे हैं। यह देख कर वे बहुत आश्चर्यचकित हुए और सोचने लगे कि जो ईश्वर स्वयं को चढ़ाये गये प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकता वह मानवता की रक्षा क्या करेगा?
दयानन्द सरस्वती और आर्य समाज
महर्षि दयानन्द ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् 1875 को गिरगांव मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत प्राणिमात्र के कल्याण के लिए है। संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
आर्य समाज के दस प्रिंसिपल
सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है।
च ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करना योग्य है।
वेद सब सत्यविद्याओं की पुस्तक है। वेद को पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।
सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।
सब काम धर्मानुसार अर्थात सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिए।
संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना ।
सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिए।
अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।
प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से संतुष्ट नहीं रहना चाहिए किन्तु सबकी उन्नति में ही अपनी उन्नति समझनी चाहिए।
सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।
आर्य समाज के इन दस प्रिंसिपल पर चलकर महर्षि दयानन्द ने भारत के सुधार की शरूआत की और लोगों को वेद पर वापिस जाने और उसकी आध्यात्मिक पढ़ाई को समझने के लिए प्रेरित किया।समाज ने लोगों को पारम्परिक रीतिया जैसे मूर्ति पूजन, पवित्र नदियों में स्नान करना, जानवरों की बलि देना, मंदिरों में चढ़ावा चढ़ाना से दूर रहने के लिए प्रेरित किया। आर्य समाज ने लोगों को चली आ रही परम्पराओं को आँख बंद करके मानने के बजाये उसपर प्रश्न उठाने के लिए प्रेरित किया।
आर्य समाज ने न सिर्फ भारतीय सोच को बदला बल्कि उन्होंने कई सामाजिक मुद्दों को भी खत्म किया और इसमें से मुख्य था विद्दवाओं का पूर्ण विवाह और महिला शिक्षा। 1880 में समाज ने विद्दवाओं के पूर्ण विवाह के लिए कार्यक्रमों की शुरूआत की । महर्षि दयानन्द ने लड़कियों को शिक्षा देने और बाल विवाह के खिलाफ जोर डाला। उन्होंने बताया की समाज के सुधार के लिए एक शिक्षित पुरुष के साथ शिक्षित महिला का होना बहुत जरूरी है।