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सोहन के पिता गाँव के सबसे बड़े ज़मींदार थे, और सोहन उनका इकलौता पुत्र था, जिसके लिए घर में किसी चीज़ की कमी नहीं थी।
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सोहन का ध्यान रखने के लिए कई नौकर थे, और वह कभी अपने काम खुद नहीं करता था, यहाँ तक कि जूतों के फीते भी नौकर बाँधते थे।
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गाँव में सिर्फ आठवीं तक स्कूल था, इसलिए सोहन को शहर जाकर होस्टल में रहकर पढ़ाई करनी पड़ी, जहाँ उसे नौकरों की सुविधा नहीं थी।
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होस्टल में रहने के दौरान सोहन को अपने काम खुद करने में दिक्कतें आईं, क्योंकि वह कभी अपनी जिम्मेदारियां नहीं निभाता था।
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एक दिन, सोहन ने देखा कि उसका कमरा साफ-सुथरा था, लेकिन उसे नहीं पता था कि यह किसने किया।
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बाद में, उसने देखा कि प्रधानाचार्य उसके कमरे की सफाई कर रहे थे, और इस पर वह हैरान रह गया।
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प्रधानाचार्य ने सोहन को समझाया कि आत्मनिर्भरता जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है, और यह उसकी शिक्षा का एक हिस्सा है।
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प्रधानाचार्य की बातों से प्रभावित होकर सोहन ने आत्मनिर्भरता की महत्ता को समझा और अपने काम खुद करने का निर्णय लिया।
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इस कहानी से यह सीख मिलती है कि आत्मनिर्भरता और अपने काम खुद करने की आदत ही सच्ची महानता है, और काम करने से किसी की इज़्ज़त कम नहीं होती।
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जीवन में अनुशासन, आत्मसम्मान और जिम्मेदारी की भावना आत्मनिर्भरता से ही आती है, जो महानता की ओर ले जाती है।
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