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जुगनू बाबू, जो 60 साल तक सरकारी दफ्तर में काम करने के बाद रिटायर हुए, को हर महीने मनीऑर्डर से पेंशन मिलती थी।
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पहली अप्रैल को, उन्हें पेंशन की बजाय एक रजिस्टर्ड पत्र मिला जिसमें उनसे जीवित होने का प्रमाण मांगा गया।
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जुगनू बाबू ने सोचा कि व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होकर पेंशन का प्रमाण दे देंगे, लेकिन क्लर्क ने लिखित प्रमाण की मांग की।
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कई प्रयासों के बाद, जैसे राशन कार्ड और जीवन-मरण कार्यालय से प्रमाण, जुगनू बाबू अपने जीवित होने का प्रमाण नहीं दे सके।
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जब उनके पास कोई उपाय नहीं बचा, तो उन्होंने काउंसिलर से मदद मांगी, लेकिन उन्होंने भी मना कर दिया।
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चुनाव के समय, काउंसिलर ने वोट के बदले जुगनू बाबू को जीवित होने का प्रमाण पत्र दिया।
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प्रमाण पत्र मिलने के बाद, जुगनू बाबू ने फिर से पेंशन कार्यालय में अर्जी दी, और इस बार उनकी अर्जी स्वीकार कर ली गई।
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हालांकि, उन्हें केवल जनवरी की पेंशन मिली, क्योंकि उन्होंने केवल जनवरी में जीवित होने का प्रमाण दिया था। बाकी महीनों की पेंशन के लिए उन्हें फिर से प्रमाण देना होगा।
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इस पूरी प्रक्रिया ने जुगनू बाबू को लालफीताशाही की जटिलताओं और हास्यास्पद स्थितियों का अनुभव कराया।
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