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झामू, जो घर का नौकर था, मूर्ति की शरारतों की वजह से परेशान था क्योंकि मूर्ति हमेशा अपनी गलतियों का इल्जाम उस पर लगा देता था।
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मूर्ति के कंजूस पिता ने झामू को नौकरी से निकाल दिया जब मूर्ति ने उनके बही खाते के कागजों की नाव बनाकर नदी में बहा दी।
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मूर्ति के माता-पिता उसके गलत व्यवहार से चिंतित थे और बीरबल से सलाह लेने का निर्णय किया।
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बीरबल ने कंजूस पिता को मूर्ति के लिए एक अच्छा शिक्षक रखने का सुझाव दिया, जिससे मूर्ति के स्वभाव में सुधार आया।
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पीटर, जो मूर्ति का नया शिक्षक था, ने उसे अच्छे और रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रखा और उसके स्वभाव में सकारात्मक बदलाव लाया।
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तीन महीनों बाद, जब पीटर ने अपनी तनख्वाह मांगी, तो कंजूस पिता ने देने से इंकार कर दिया।
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बीरबल ने कंजूस को झामू और पीटर की तनख्वाह देने पर मजबूर किया, ताकि वह मूर्ति के लिए एक मुफ्त शिक्षक से मिल सके।
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अंत में, बीरबल ने कंजूस को गौतम बुद्ध की मूर्ति देकर यह सिखाया कि वह सच्चे शिक्षक हैं और अच्छे शिक्षक को उचित मूल्य दिया जाना चाहिए।
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इस कहानी के माध्यम से यह संदेश दिया गया है कि गलतियों से सीखना और सही मार्गदर्शन पाना जीवन में महत्वपूर्ण है।
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