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एक निर्दयी और अत्याचारी राजा अपनी प्रजा को दुख और कष्ट देता था, जिससे जनता अत्यधिक पीड़ित थी।
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एक दिन एक साधु उस राज्य में आया और जनता की पीड़ा सुनकर उन्हें धैर्य रखने की सलाह दी, यह कहते हुए कि वह राजा को सही राह पर ले आएगा।
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साधु राजा के पास गया और उसे बताया कि वह वास्तव में सबसे दुखी व्यक्ति है, भले ही वह खुद को सुखी समझता है।
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साधु ने राजा को समझाया कि जो चीज किसी के पास नहीं होती, वह उसे दूसरों को नहीं दे सकता। राजा ने केवल दुख दिया है, इसलिए वह सबसे दुखी है।
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राजा ने साधु की बात का अर्थ समझा और लज्जित होकर प्रजा को सुख देने का वचन दिया।
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राजा ने साधु से क्षमा मांगी और यह संकल्प लिया कि वह अब अपनी प्रजा को दुख नहीं देगा और उन्हें आवश्यक सुख-सुविधाएं प्रदान करेगा।
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साधु ने जाते-जाते राजा को बताया कि जनता की भलाई करना ही राजा का धर्म होता है।
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इस कहानी का नैतिक यह है कि सच्चा सुख दूसरों को सुख देने में ही है,
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और जो दूसरों को दुख देता है, वह स्वयं सबसे अधिक दुखी होता है।
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