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भईया लाल एक डरपोक व्यक्ति हैं जो भूत-प्रेत और जादू-टोने से बहुत डरते हैं, क्योंकि उनका बचपन अंधविश्वासों के माहौल में बीता है।
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उनकी पत्नी, सुन्दरी, उनके इस डर से परेशान हैं और समाधान के लिए अपने मामा रामप्रसाद जी से मदद मांगती हैं।
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रामप्रसाद जी भईया लाल के डर को भ्रम मानते हैं और उन्हें इस भ्रम से बाहर निकालने की योजना बनाते हैं।
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एक रात रामप्रसाद जी के जूते खो जाते हैं और वह भईया लाल से उन्हें कोठरी से लाने के लिए कहते हैं, लेकिन भईया लाल डर के कारण मना कर देते हैं।
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कपिल, भईया लाल का छोटा बेटा, बिना किसी डर के जूते लाने कोठरी में चला जाता है और सफलतापूर्वक जूते ले आता है।
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रामप्रसाद जी इसे उदाहरण के रूप में पेश करते हैं कि भूत-प्रेत का डर केवल एक भ्रम है और यह हमारे दिमाग की उपज है।
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वह भईया लाल को समझाते हैं कि अगर वह सकारात्मक चीजों पर ध्यान देंगे, तो उनका डर गायब हो जाएगा।
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भईया लाल को अपनी गलती का एहसास होता है और वह वादा करते हैं कि आगे से वे डरेंगे नहीं।
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कहानी हास्य और प्रेरणा का मिश्रण है, जो दिखाती है कि कैसे अंधविश्वास पर काबू पाया जा सकता है।
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अंत में, भईया लाल की समझ में आ जाता है कि उनका डर केवल उनके दिल का भ्रम था।
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