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एक महर्षि का आश्रम कृष्णा नदी के किनारे था, जहां कई शिष्य विद्याध्ययन करते थे। एक दिन उन्होंने अपने शिष्य को गांव से जरूरत की चीजें लाने को कहा।
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शिष्य खाली हाथ लौटा और बताया कि गांव की पकौड़ीमल और घासीराम की दुकानों में आग लग गई थी, जिससे सब सामान जलकर राख हो गया।
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पकौड़ीमल धूर्त और बेईमान था, जबकि घासीराम ईमानदार और मेहनती था। अगली सुबह महर्षि शिष्यों के साथ गांव पहुंचे।
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उन्होंने देखा कि पकौड़ीमल अपने नुकसान का बहाना बनाकर लोगों के कर्ज नहीं चुका रहा था, जबकि घासीराम ने अपनी पत्नी के गहने गिरवी रखकर लोगों के कर्ज अदा किए।
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महर्षि ने पकौड़ीमल को सुधारने की सलाह दी और घासीराम को धीरज रखने की सीख दी, यह कहते हुए कि अच्छाई का फल कभी व्यर्थ नहीं जाता।
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महर्षि ने शिष्यों को समझाया कि अच्छाई और बुराई की परख मुश्किल समय में होती है।
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पकौड़ीमल अपनी बुरी नीयत के कारण असफल रहा, जबकि घासीराम अपनी ईमानदारी में सफल रहा।
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कहानी का नैतिक संदेश यह है कि कठिन परिस्थितियों में व्यक्ति की सच्ची अच्छाई और बुराई सामने आती है।
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महर्षि के विचारों से शिष्य संतुष्ट हुआ, यह समझते हुए कि भले और बुरे की असली पहचान कठिन समय में होती है।
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