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कालू सियार नदी पर गुस्सा कर रहा था क्योंकि उसे कई दिनों से केकड़े नहीं मिल रहे थे और उसे शक था कि नदी ने केकड़ों को छिपा लिया है।
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कालू ने बदला लेने के लिए नदी में काला रंग डाल दिया, लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ और नदी वैसी ही चमचमाती बहती रही।
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कालू ने लाल और पीला रंग भी डाला, लेकिन ये भी नदी पर कोई प्रभाव नहीं डाल सके और सभी रंग नदी के पानी में घुल गए।
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गुस्से में कालू ने अपने सिर के बाल नोंच लिए, लेकिन एक बूढ़े मगरमच्छ ने उसे समझाया कि नदी ने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा है।
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मगरमच्छ ने कालू को बताया कि उसने सारे केकड़े खा लिए हैं और बचा-खुचा केकड़ा उससे डरता है।
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कालू ने मगरमच्छ की बात अनसुनी कर दी और बचा-कुचा रंग भी नदी में फेंक दिया, जिस पर मगरमच्छ हँस पड़ा।
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मगरमच्छ ने कालू को सुझाव दिया कि वह अपना मुंह नदी में धो ले, नहीं तो जंगल के जानवर उसे देखकर हँसेंगे।
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अंत में, कालू को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने समझा कि नदी सभी जीवों का ख्याल रखती है और उसे गंदा करना गलत था।
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कालू ने माना कि वह अपने स्वार्थ के कारण नदी को गंदा कर रहा था और उसे उसके कृत्य पर शर्मिंदगी महसूस हुई।
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कहानी से यह सिखने को मिलता है कि हमें स्वार्थी नहीं होना चाहिए और प्रकृति की सुंदरता और उपयोगिता का सम्मान करना चाहिए।
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