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इलाके के बच्चों की एक हॉकी टीम थी, जिसे एक स्पॉन्सर की ज़रूरत थी। उनके पास खेल के लिए मैदान और हॉकी स्टिक तो थी, लेकिन गोल पोस्ट और जूते नहीं थे।
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टीम को एक ऐसे मैनेजर की जरूरत थी जो उनकी हॉकी स्टिक का इंतजाम कर सके और जीतने पर पार्टी दे सके।
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यह कहानी हॉकी खिलाड़ी ध्यानचंद के समय की है, जब भारतीय टीम ओलंपिक में जीत हासिल कर रही थी।
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बच्चों के माता-पिता को खेल से उनकी पढ़ाई में बाधा होने का डर था, लेकिन बच्चों ने उम्मीद नहीं छोड़ी।
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मोहल्ले का दूधवाला टीम का स्पॉन्सर बनने को तैयार हो गया। वह बच्चों को मुफ्त में दूध पिलाता और टूटी हुई हॉकी स्टिक को जोड़ता था।
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दूधवाले का दिन में खाली समय होता था, जिससे वह टीम के लिए मैचों का इंतजाम करता और खिलाड़ियों का चयन करता।
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टीम ने जिले के हॉकी टूर्नामेंट में सेमीफाइनल तक का सफर तय किया, लेकिन प्रैक्टिस के दौरान उनकी गेंद की सिलाई खुल गई।
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अगले दिन, स्पॉन्सर की मृत्यु हो गई, लेकिन उसने पहले से ही टीम की जरूरतों के लिए दो नई हॉकी बॉल्स का इंतजाम कर रखा था।
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कहानी से यह सीख मिलती है कि सच्चा स्पॉन्सर अपनी टीम की जिम्मेदारियों को समझता है और मुश्किल समय में सहयोग का महत्व बढ़ जाता है। दूधवाले का समर्पण खिलाड़ियों के लिए प्रेरणा बन गया।
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