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अशरफ के पापा, जो नगर के सरकारी अस्पताल में कम्पाउंडर हैं, अपने गुस्सैल स्वभाव और रोगियों से कठोर व्यवहार के लिए कुख्यात हैं, जिससे अशरफ को स्कूल में "जल्लाद का बेटा" कहकर चिढ़ाया जाता है।
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अशरफ के पापा ऊपरी कमाई के लिए रोगियों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, और इस कारण से लोग उन्हें फांसी घर में काम करने लायक समझते हैं।
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एक दिन, अशरफ ने अपने पापा से सवाल किया कि वे रोगियों से इतना रूखा व्यवहार क्यों करते हैं और ऊपरी कमाई के लिए उन्हें परेशान क्यों करते हैं।
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अशरफ ने अपने दोस्त की मां के लिए अस्पताल में डॉक्टर से अच्छी दवाएं दिलाने की कोशिश की, लेकिन एक मरीज की गंभीर हालत देखकर वह डॉक्टर को बुलाने दौड़ पड़ा।
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अशरफ के पापा द्वारा लापरवाही से पट्टी खींचने के कारण एक मरीज की हालत खराब हो गई थी, जिससे उसे बहुत खून बह गया।
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अशरफ ने अपनी समझदारी और साहस का परिचय देते हुए डॉक्टर को बुलाया, जिससे मरीज को समय पर इलाज मिल सका।
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मरीज को खून की आवश्यकता थी, और अशरफ ने बिना किसी झिझक के अपना खून देकर उसकी जान बचाई, जिससे उसकी प्रशंसा पूरे अस्पताल में हुई।
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इस घटना के बाद, अशरफ के पापा को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने अपने बेटे के साहस और उदारता को देखकर पश्चाताप किया।
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अशरफ की इस नेकदिली ने उसके पापा के भीतर के कठोर व्यक्ति को बदल दिया, और उन्होंने अपने बेटे पर गर्व महसूस किया।
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कहानी इस बात पर जोर देती है कि कैसे एक नेक काम और उदारता से किसी को भी बदलने की क्षमता होती है।
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