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विश्व विजेता सिकन्दर अपनी विशाल सेना के साथ ईरान को जीत कर अभिमान से आगे बढ़ रहा था, और सड़कों पर हजारों लोग उसकी दया दृष्टि के लिए खड़े थे।
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सिकन्दर को विश्वास था कि सब लोग उसकी प्रशंसा करेंगे, लेकिन संतों की एक टोली ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया, जिससे उसे अपमान महसूस हुआ।
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सिकन्दर ने संतों को बुलवाकर उनके अभिमान का कारण पूछा, और एक वृद्ध संत ने निडरता से उत्तर दिया कि सिकन्दर का अभिमान मिथ्या है।
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संत ने सिकन्दर को बताया कि उसकी तृष्णा और अहंकार उसे भ्रमित कर रहे हैं, और संतों की दृष्टि में वह एक छोटा व्यक्ति है।
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इस सत्य से सिकन्दर का घमण्ड चूर-चूर हो गया, और उसे अपनी तुच्छता का अहसास हुआ।
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सिकन्दर ने अपनी गलती स्वीकार की और संतों को मुक्त कर दिया, और वे आगे बढ़ गए।
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यह कहानी सिकन्दर के मिथ्या वैभव और संतों की सच्ची विनम्रता को दर्शाती है।
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कहानी का मुख्य संदेश यह है कि अहंकार से बड़ा कोई शत्रु नहीं होता
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और विनम्रता ही सच्ची महानता है।
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