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भगवान श्रीकृष्ण को शिक्षा प्राप्त करने के लिए उज्जयिनी के प्रसिद्ध विद्वान ऋषि संदीपनी के पास भेजा गया, जहाँ उन्होंने सुदामा के साथ शास्त्रों की शिक्षा ली।
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श्रीकृष्ण अपने गुरु के प्रति अत्यंत समर्पित थे और गुरुदेव के यज्ञ हवन के लिए स्वयं जंगल से लकड़ियां लाते थे, साथ ही उनके चरण भी दबाते थे।
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शिक्षा समाप्त होने पर श्रीकृष्ण ने अपने गुरु से दक्षिणा देने की इच्छा जताई, लेकिन ऋषि संदीपनी ने कहा कि सच्चा गुरु वही है जो शिष्य को शिक्षा के साथ संस्कार भी दे।
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ऋषि संदीपनी ने श्रीकृष्ण से आग्रह किया कि वे धर्मरक्षार्थ मार्गदर्शन करते समय इसके बदले में कभी कुछ स्वीकार न करें।
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श्रीकृष्ण ने गुरु का आदेश मानकर जीवन में निःस्वार्थ भाव से सेवा और मार्गदर्शन किया, जैसे उन्होंने अर्जुन को ज्ञान दिया और उनके सारथी बने।
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इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें हमेशा निःस्वार्थ भाव से दूसरों की मदद करनी चाहिए।
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यह कहानी नैतिकता और संस्कारों के महत्व को दर्शाती है,
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जो जीवन में सच्चे मार्गदर्शन का मूल आधार होते हैं।
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इस प्रकार की बाल कहानियाँ बच्चों को नैतिक मूल्यों और जीवन के सही पथ पर चलने की प्रेरणा देती हैं।
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