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एक बार एक पिता और पुत्र एक घोड़ा लेकर यात्रा पर निकले। पुत्र ने पिता से घोड़े पर बैठने का अनुरोध किया, लेकिन लोगों ने पिता को निर्दयी कहा क्योंकि पुत्र को पैदल चलना पड़ रहा था।
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पिता ने पुत्र को घोड़े पर बैठाया और स्वयं पैदल चलने लगे, लेकिन फिर लोग पुत्र को निर्लज्ज कहने लगे क्योंकि वह युवा होकर घोड़े पर बैठा था और पिता पैदल चल रहे थे।
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जब दोनों घोड़े पर बैठ गए, तो लोगों ने उनके वजन के कारण घोड़े को दबने का डर बताया और उन्हें भैंसे के समान कहा।
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अंततः पिता-पुत्र ने घोड़े को डंडे पर उल्टा लटका लिया, फिर भी लोगों ने उन्हें मूर्ख कहा,
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क्योंकि घोड़ा बैठने के लिए होता है, लटकाने के लिए नहीं।
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इस घटना से पिता-पुत्र ने समझा कि लोगों की आलोचना से बचना असंभव है, चाहे वे कुछ भी करें।
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कहानी का नैतिक यह है कि लोगों की बातों पर ध्यान देने के बजाय वही करना चाहिए जो स्वयं को सही लगे।
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संसार को प्रसन्न करना कठिन है, और लोगों का काम केवल कहना होता है।
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यह कहानी हमें यह सिखाती है कि दूसरों की राय के बजाय अपनी अंतरात्मा की सुनना अधिक लाभदायक होता है।
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