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राजा देवराज के राज्य में जयपाल नामक एक कुशल मूर्तिकार था, जिसकी कला से प्रभावित होकर राजा ने उसे राज कारीगरों में शामिल कर लिया।
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जयपाल ने राजा के आदेश पर एक अद्वितीय मूर्ति बनाई, जिसे देखकर सभी दरबारी उसकी कला से प्रभावित हुए। राजा ने उसे इनाम में दो ऊँट, सोने के सिक्के, और कई एकड़ खेत दिए।
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जयपाल की सफलता से अन्य मूर्तिकारों में ईर्ष्या उत्पन्न हो गई और वे उसकी मूर्ति में त्रुटियाँ निकालने लगे।
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राजा ने सभी मूर्तिकारों को बुलाकर मूर्ति की त्रुटियाँ जाननी चाहीं। अन्य मूर्तिकारों ने मौके का फायदा उठाकर मूर्ति की आलोचना की।
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राजा ने जयपाल से मूर्तिकारों द्वारा बताई गई त्रुटियों को सुधारने का आदेश दिया, लेकिन जयपाल जानता था कि यह ईर्ष्या का परिणाम है।
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जयपाल ने मूर्ति को सुधारने के लिए राजा से पंद्रह दिन का समय और एक बड़ा कमरा मांगा, ताकि बिना बाधा के काम कर सके।
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पंद्रह दिन बाद, जयपाल ने मूर्ति को बिना किसी बदलाव के प्रस्तुत किया। अन्य मूर्तिकारों को लगा कि मूर्ति में कोई सुधार नहीं हुआ है और उनकी ईर्ष्या निरर्थक रही।
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राजा ने जयपाल की ईमानदारी और शांतिप्रियता की प्रशंसा की और उसे अपना मूर्तिकार नियुक्त किया।
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जयपाल ने ईर्ष्या का बदला शांति से लिया और स्वयं को कैद में रखकर विरोधियों को संतुष्ट किया।
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