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एक अध्यापक ने बारह वर्षीय छात्र प्रफुल्ल से पूछा कि वह बड़ा होकर क्या बनना चाहता है। प्रफुल्ल ने डॉक्टर बनने की इच्छा जाहिर की, ताकि वह गरीब मरीजों की मदद कर सके।
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प्रफुल्ल एक मेधावी छात्र था और उसने मेडिकल प्रतियोगिता परीक्षा के लिए कड़ी मेहनत की, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली।
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आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण प्रफुल्ल अन्य छात्रों को मेडिकल प्रतियोगिता की तैयारी के लिए कोचिंग देता था। उसके पढ़ाने के तरीके की छात्रों ने काफी सराहना की।
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प्रफुल्ल के तीन शिष्य पहली बार में ही मेडिकल प्रतियोगिता में सफल हो गए, जबकि प्रफुल्ल खुद असफल रहा।
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दोस्तों ने इस पर प्रफुल्ल का मजाक उड़ाया, लेकिन उसने शांत भाव से बताया कि वह अपने शिष्यों की सफलता से गर्वित है।
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प्रफुल्ल ने अपने दोस्तों को समझाया कि जैसे एक पिता अपने पुत्र की उन्नति से खुश होता है, वैसे ही एक शिक्षक अपने शिष्य की सफलता से खुशी महसूस करता है।
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शिक्षक की पहचान उसके सफल शिष्य से होती है, और प्रफुल्ल ने इसे गर्व के साथ स्वीकार किया।
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इस कहानी के माध्यम से यह संदेश मिलता है कि सच्ची सफलता दूसरों की उन्नति में खुशी पाने में है,
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न कि केवल अपनी उपलब्धियों में।
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