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हरिपुर के राजा सुप्रताप सिंह के पास प्रजा की भलाई के लिए कई काम थे, लेकिन वह व्यर्थ की बातों में अधिक समय गंवाते थे।
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एक बार राजा ने मंत्री को आदेश दिया कि राज्य की सभी मछलियों को एक बड़े तालाब में इकट्ठा किया जाए, जिससे मंत्री और प्रजा का समय और श्रम बर्बाद हुआ।
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राजा ने सेनापति को राज्य के तीन सबसे बड़े मूर्खों को ढूंढकर दरबार में पेश करने का आदेश दिया, जिससे उनकी मूर्खता का प्रदर्शन हो सके।
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सेनापति ने पहले मूर्ख के रूप में एक व्यक्ति को पेश किया जिसने अंधविश्वास के चलते अपने परिवार को भूखा रखा और पैसे कमाने के लिए मूर्खतापूर्ण तरीके अपनाए।
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राजा ने उस व्यक्ति को 'मूर्खाधिराज' की उपाधि दी और अपना रत्नों का हार पहनाया।
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सेनापति ने राजा को बताया कि दूसरे मूर्ख स्वयं राजा हैं, जो विद्वानों के बजाय मूर्खों को ढूंढने का कार्य कर रहे हैं।
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तीसरे मूर्ख के रूप में सेनापति ने स्वयं को प्रस्तुत किया, यह बताते हुए कि वह मूर्खों की खोज में समय बर्बाद कर रहे हैं।
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सेनापति की बातें सुनकर राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने भविष्य में व्यर्थ के कामों से दूर रहने की प्रतिज्ञा की।
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राजा के इस निर्णय से मंत्री और सेनापति सभी प्रसन्न हुए और राज्य में कोई भी कर्मचारी फिर से राजा की सनक का शिकार नहीं हुआ।
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