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संत दादू दयाल अपनी सादगी और सहनशीलता के लिए प्रसिद्ध थे और फटे-पुराने वस्त्र पहने एक पेड़ की छाया में काम कर रहे थे।
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एक अहंकारी थानेदार घोड़े पर सवार होकर संत दादू के दर्शन के लिए आया लेकिन उन्हें पहचान नहीं पाया और उन्हें अपमानजनक भाषा में संबोधित किया।
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संत दादू ने थानेदार की बात का कोई जवाब नहीं दिया और शांतिपूर्वक अपना काम करते रहे, जिससे थानेदार को गुस्सा आया और वह गालियां देते हुए आगे बढ़ गया।
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बाद में थानेदार को पता चला कि वह व्यक्ति वास्तव में संत दादू दयाल ही थे, जिन्हें उसने कुछ देर पहले अपशब्द कहे थे।
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थानेदार ने अपनी गलती पर पछतावा किया और संत दादू से माफी मांगी, यह कहते हुए कि वह उन्हें अपना गुरु बनाना चाहता था।
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संत दादू ने मुस्कुराते हुए कहा कि किसी को गुरु बनाने से पहले उसे परखना चाहिए, जैसे कोई घड़ा खरीदने से पहले उसे ठोक-बजाकर देखता है।
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संत दादू ने थानेदार की गलती को समझा और उसे क्षमा कर दिया, यह बताते हुए कि उसने कुछ गलत नहीं किया।
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थानेदार ने भविष्य में किसी से दुर्व्यवहार न करने की कसम खाई,
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इस घटना से उसे एक महत्वपूर्ण सीख मिली।
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