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महर्षि रमण अपने आश्रम में ध्यानमग्न बैठे थे, जहाँ अध्यात्म की गूंज थी और एक युवक उनसे मिलने आया।
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युवक के मन में जीवन, संसार और ईश्वर को लेकर कई शंकाएँ थीं, जिन्हें वह महर्षि से पूछना चाहता था।
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युवक ने महर्षि से पूछा कि जब ईश्वर है, तो संसार में दुःख, अन्याय और अनर्थ क्यों हैं।
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महर्षि ने युवक को समझाया कि जैसे मस्तिष्क, हवा, और प्रेम दिखते नहीं लेकिन अनुभव किए जा सकते हैं, वैसे ही ईश्वर भी अनुभव किए जा सकते हैं।
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महर्षि ने बताया कि ईश्वर को पाने का मार्ग बाहर नहीं, बल्कि भीतर है; आत्मज्ञान से ही ईश्वर की अनुभूति होती है।
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युवक ने महर्षि की बातें सुनकर भीतर झाँकने और ईश्वर को अनुभव करने का संकल्प लिया।
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महर्षि ने युवक को आशीर्वाद देते हुए कहा कि सच्चा ज्ञान खोजने का यही पहला कदम है।
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युवक आश्रम से संतोष और श्रद्धा के साथ विदा हुआ, उसे विश्वास हो गया था कि अदृश्य का भी अस्तित्व होता है।
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कहानी की सीख यह है कि ईश्वर, आत्मा और प्रेम को देखने की नहीं, अनुभव करने की आवश्यकता होती है।
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