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वीर बहादुर का जीवन एकाकी था; ना माता-पिता थे, ना पत्नी और बच्चे। वह राधेपुर गांव में रहते थे और उनकी कद-काठी दुबली-पतली थी।
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वीर बहादुर का दावा था कि वह सेना में थे, लेकिन पेंशन ना मिलने के सवाल पर वे टाल जाते थे। बच्चे उनके सेना के किस्से सुनने में रुचि रखते थे और उनके लिए खाने का सामान लाते थे।
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गांव के बड़े लोग कभी-कभी वीर बहादुर के किस्से सुनकर हँसते और उन्हें "गपोड़ी" कहकर चिढ़ाते थे। यह नाम उनके लिए उदासी का कारण बन गया।
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एक दिन, वीर बहादुर की बहादुरी की कहानी के दौरान, एक शरारती लड़के ने उनके पास चाबी से चलने वाला नकली चूहा रख दिया, जिससे वह डर गए और बच्चों ने उनका मजाक उड़ाया।
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इस घटना के बाद, लोगों ने उनके किस्सों पर विश्वास करना बंद कर दिया और बच्चे उन्हें चिढ़ाने लगे, जिससे वीर बहादुर कोठरी में बंद रहने लगे।
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एक दिन, गांव में डाकुओं ने हमला किया और मुखियाजी की बेटी रानो को उठा लिया। वीर बहादुर ने बहादुरी से डाकुओं का सामना किया और रानो को बचा लिया।
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वीर बहादुर ने निहत्थे होकर डाकुओं से लड़ाई की और उनमें से एक को मार गिराया। गांव के लोग उनकी बहादुरी देखकर हैरान रह गए।
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वीर बहादुर की बहादुरी से गांव वालों को उन पर गर्व हुआ
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और उनकी मृत्यु के बाद गांव के बीचों-बीच उनकी प्रतिमा स्थापित की गई ताकि लोग उनसे प्रेरणा ले सकें।
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