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'दयालु' नाम का एक मुर्गा अपने झुंड की भलाई के लिए अपने सुख-स्वार्थ का त्याग करता है और दूसरों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता है।
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दयालु ने देखा कि बूढ़ी मुर्गियाँ तेज़ दौड़ नहीं पाती थीं और उन्हें अच्छा खाना नहीं मिल पाता था, इसलिए उसने अपनी जरूरतों को पीछे रखकर उनकी मदद की।
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जब सर्दियों के दौरान छत से ठंड अंदर आने लगी, तो दयालु ने अपनी आरामदायक जगह बूढ़ी मुर्गियों के लिए छोड़ दी और खुद छत को ठीक करने का जोखिम भरा काम किया।
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उसने ऊँचाई पर चढ़कर घास और पत्ते जमा किए ताकि झुंड को ठंड से बचाया जा सके, जबकि अन्य मुर्गे इस काम से पीछे हट गए।
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दयालु की निस्वार्थ सेवा और परोपकार के कारण उसे 'परोपकारी मुर्गा' का नया नाम दिया गया, और उसने साबित किया कि असली ताकत त्याग और सेवा में होती है।
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कहानी यह सिखाती है कि सच्चा परोपकार तब होता है
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जब हम अपने स्वार्थ को छोड़कर दूसरों की भलाई के लिए काम करते हैं।
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समाज में सबसे कमजोर और जरूरतमंद लोगों की मदद करना हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है।
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परोपकार से मिलने वाला संतोष किसी भी भौतिक सुख से अधिक बड़ा और स्थायी होता है।
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