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यह कहानी एक संत जुलाहे की है, जो वाराणसी के एक छोटे से गाँव में रहता था और अपनी शांति, नम्रता, और मेहनत के लिए जाना जाता था।
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कहानी में एक दिन कुछ शरारती लड़के, जिनमें एक व्यापारी का बेटा बबलू भी था, संत जुलाहे की दुकान पर पहुँचते हैं और साड़ी के टुकड़े कर उसका मजाक उड़ाते हैं।
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संत जुलाहा शांत और नम्रता से हर बार साड़ी के टुकड़ों का दाम बताता रहा, जिससे बबलू को शर्मिंदगी महसूस हुई।
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बबलू ने अपनी गलती का एहसास किया और जुलाहे से माफी माँगी, लेकिन जुलाहे ने पैसे लेने से मना कर दिया और कहा कि सच्चा धन नम्रता और दयालुता में होता है।
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जुलाहे ने बबलू को समझाया कि पैसे से मेहनत का मोल नहीं चुकता और पश्चाताप ही सबसे बड़ा धन है।
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बबलू ने वादा किया कि वह अब कभी किसी की मेहनत का मजाक नहीं उड़ाएगा और संत जुलाहे की इज्जत करेगा।
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इस घटना के बाद बबलू और उसके दोस्तों ने संत जुलाहे की बहुत इज्जत करनी शुरू कर दी और गाँव में यह कहानी फैल गई।
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कहानी का मुख्य संदेश है कि सच्ची धन-दौलत पैसे में नहीं, बल्कि नम्रता, दयालुता, और दूसरों की मेहनत की कदर में होती है।
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माता-पिता को सलाह दी गई है कि वे बच्चों को ऐसी कहानियाँ सुनाएँ जो उन्हें नम्रता, दयालुता, और गलतियों से सीखने की प्रेरणा दें।
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