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हरिद्वारी लाल गाँव के प्रमुख पुरोहित थे जो स्थानीय मंदिर की देखभाल करते थे और वहीं निवास करते थे। मंदिर में चढ़ावे की आमदनी से उनका जीवन सुचारू रूप से चलता था।
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मंदिर में कई देवी-देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित थीं, जिससे अलग-अलग भक्त अपनी आस्था के अनुसार पूजा करते थे। विद्यार्थियों से लेकर व्यापारियों तक, सभी के लिए विशेष मूर्तियाँ थीं।
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पंडित जी संस्कृत के कुछ श्लोक याद किए हुए थे, जिनका उपयोग वे गाँव वालों को धार्मिकता का आभास कराने के लिए करते थे। गाँव में किसी को संस्कृत का ज्ञान नहीं था, इसलिए उनका वचन ही सत्य माना जाता था।
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जब भी गाँव में कोई अनहोनी घटना घटती, पंडित जी कोई न कोई धार्मिक उपाय सुझाते, और गाँव वाले बिना सवाल किए उसका पालन करते थे।
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एक दिन गाँव के बच्चे एक बीमार गधे को भगाते समय उसे मार देते हैं। पंडित जी ने इस पाप का प्रायश्चित करने के लिए सोने का गधा बनवाकर मंदिर में दान करने की घोषणा की।
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एक बच्चे ने बताया कि पंडित जी का बेटा भी गधे को भगाने में शामिल था। इस पर पंडित जी ने चतुराई से जवाब दिया कि जहाँ पूत संतोष हो, वहाँ गधा मरे तो दोष नहीं लगता।
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यह सुनकर गाँव वाले प्रसन्न हो गए और पंडित जी ने भी चैन की साँस ली।
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इस कहानी से सीख मिलती है कि किसी भी बात पर अंधविश्वास करने से पहले उसका तार्किक और न्यायपूर्ण विश्लेषण करना चाहिए। धार्मिकता और ज्ञान का सही उपयोग तभी होता है जब वह सभी के लिए समान रूप से लागू हो।
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