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एक बार कौशलपुरी राज्य के राजा राघवेंद्र सिंह जंगल में शिकार करते हुए रास्ता भटक गए और भूख-प्यास से व्याकुल होकर एक वनवासी की झोपड़ी तक पहुंचे, जहां उन्हें शरण मिली।
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राजा ने वनवासी की उदारता के लिए उसे चंदनपुर के चंदन के बगीचे की भूमि पुरस्कार में दी, जिससे उसका जीवन आराम से कट सके।
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वनवासी चंदन के पेड़ों की असली कीमत और उपयोगिता नहीं जानता था और उसने उन्हें काटकर कोयला बनाना शुरू कर दिया, जिससे पूरा बगीचा समाप्त हो गया।
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एक दिन, जब वह चंदन की लकड़ी बाजार में बेचने गया, तो उसकी सुगंध से प्रभावित होकर लोगों ने उसे भारी कीमत चुकाई और उसे चंदन की असली कीमत का पता चला।
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वनवासी को अपनी मूर्खता पर पछतावा हुआ कि उसने अनमोल चंदन को कोयला बना दिया और बुजुर्ग व्यक्ति ने उसे जीवन के अनमोल गुणों की पहचान न करने की गलती के बारे में बताया।
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बुजुर्ग ने समझाया कि जैसे वनवासी ने चंदन के मूल्य को नहीं पहचाना, वैसे ही हम भी अपने जीवन के अनमोल गुणों को क्रोध, ईर्ष्या, और लोभ में जलाकर बर्बाद कर देते हैं।
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वनवासी ने बुजुर्ग की बात मानकर अंतिम चंदन के पेड़ का समझदारी से उपयोग करने का निश्चय किया और जीवन के इस संदेश को याद रखने का प्रण लिया।
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वहाँ खड़े अन्य लोगों ने भी मन ही मन यह निश्चय किया कि वे अपने जीवन में नकारात्मक भावनाओं को छोड़कर भलाई और सकारात्मकता में लगाएँगे।
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इस कहानी से हमें सीख मिलती है कि हमें अपने जीवन के अनमोल गुणों और अवसरों को पहचानकर क्रोध, ईर्ष्या, और लोभ जैसी भावनाओं को त्यागना चाहिए, ताकि हमारा जीवन सुंदर और उपयोगी बन सके।
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