छोटे साहिबजादों की शहादत को याद करने के लिए आज भी हजारों परिवार जमीन पर सोते है

भारत में एक से बढ़ कर एक वीरों ने जन्म लिया . हमारे देश भारत कुर्बानियों और शहादत के लिए भी जाना जाता है और यहां तक के हमारे देश के गुरुओं ने भी देश कौम के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी है. देश और धर्म के लिए अपनी शहादत देने के लिए सिख धर्म के गुरुओं ने ही नहीं बल्कि उनके बच्चों ने भी देश और कौम की खातिर अपनी जान कुर्बान कर दी. सिख के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह जी के छोटे साहिबजादों की शहादत को कौन भुला सकता है. जिन्होंने धर्म की रक्षा के लिए शहादत दी.

By Lotpot
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Even today thousands of families sleep on the ground to remember the martyrdom of the younger Sahibzads.

भारत में एक से बढ़ कर एक वीरों ने जन्म लिया . हमारे देश भारत कुर्बानियों और शहादत के लिए भी जाना जाता है और यहां तक के हमारे देश के गुरुओं ने भी देश कौम के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी है. देश और धर्म के लिए अपनी शहादत देने के लिए सिख धर्म के गुरुओं ने ही नहीं बल्कि उनके बच्चों ने भी देश और कौम की खातिर अपनी जान कुर्बान कर दी. सिख के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह जी के छोटे साहिबजादों की शहादत को कौन भुला सकता है. जिन्होंने धर्म की रक्षा के लिए शहादत दी.

गुरू गोबिन्द सिंह को चारों साहिबजादों की शहादत को कोई भूले से भी नहीं भुला सकता. आज भी जब कोई उस दर्दनाक घटना को याद करता है तो कांप उठता है. गुरू गोबिन्द सिंह के बड़े साहिबजादें बाबा अजीत सिंह और जुझार सिंह चमकौर मुगलों से लड़ते हुए शहीद हो गए. उन्होंने ये शहीदी 22 दिसम्बर और 27 दिसम्बर 1704 को पाई. इस दौरान बडे़ साहिबजादों में बाबा अजीत सिंह की उम्र 17 साल थी जबकि बाबा जुझार सिंह की उम्र महज 13 साल की थी. मगर जो उम्र बच्चों के खेलने कूदने की होती है उस उम्र में छोटे साहिबजादों ने शहीदी प्राप्त की. छोटे साहिबजादों को सरहंद के सूबेदार वजीर खान ने जिंदा दीवारों में चुनवा दिया था. उस समय छोटे साहिबजादों में बाबा जोरावर सिंह की उम्र 7 साल थी. जबकि बाबा फतेह सिंह की उम्र केवल 5 साल की थी.

इस ऐतिहासिक घटना को याद करते हुए पीएम मोदी ने श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के प्रकाशोत्सव के अवसर पर चार साहिबजादों को समर्पित करने के लिए ‘वीर बाल दिवस’ के रूप में इस दिन को मनाने का ऐलान किया. इस घटना को याद करने के लिए देश अब से 26 दिसंबर को 'वीर बाल दिवस' के रूप में मनाया जाएगा. ताकि आने वाली पीढ़ी इस घटना से प्रेरणा लें.

मुगल और छोटे साहिबजादे

गुरु गोबिंद सिंह ने 5-6 दिसंबर, 1705 की रात आनंदपुर को खाली करा लिया. गुरु गोबिंद सिंह जी अपने बहादुर योद्धाओं के साथ मुगलों की सेना से लड़ते हुए तेजी आगे बढ़ रहे थे. उस समय उनके साथ उनकी माता गुजरी और दो बेटे जोरावर सिंह और फतेह सिंह भी थे. सरसा नदी पार करते वक्त गुरु गोबिंद सिंह जी परिवार से बिछड़ गए थे. वहीं परिवार के बिछड़े अन्य लोग घर वापस चले गए. कहा जाता है कि माता गुजरी के पास मुगल सेना के सिक्कों को देख कर गंगू लालच में आ जाता है और उसे इनाम पाने की इतनी चाहत थी कि उसने कोतवाल को माता गुजरी की सूचना दे दी. माता गुजरी अपने दो छोटे पोतों के साथ गिरफ्तार हो गई. 9 दिसंबर, 1705 को जोरावर सिंह और फतेह सिंह को वजीर खान के सामने पेश किया गया. उसने उन्हें धन और सम्मान के वादे के साथ इस्लाम अपनाने के लिए लुभाने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया. उसने उन्हें इस्लाम के विकल्प के रूप में मौत की धमकी दी, लेकिन वे दृढ़ रहे. अंततः मौत की सजा दी गई. उन्हें भीषण सर्दी में कोल्ड टॉवर में उनकी दादी के साथ तीन दिनों के लिए रखा गया था. 12 दिसंबर को दीवार में चुनवा दिया. इस खबर से माता गुजरी ने भी अपने प्राण त्याग दिए .

जिस जगह पर उन्हें दीवार में चुनवाया गया, वहां अभी गुरुद्वारा श्री भौरा साहिब स्थापित है. माता गुजरी और छोटे साहिबजादों ने जो दुख उठाई, उन्हें आज भी फतेहगढ़ में हजारों परिवार 15 दिनों तक जमीन पर सोते हुए याद करते है.