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बचपन के शौक ने तमिलनाडु की रहने वाली 15 साल की अश्वथा बीजू को एक जीवाश्म विज्ञानी बना दिया। भारत में जीवाश्मिकी (palaeontology) विषय ज्यादा लोकप्रिय नहीं है लेकिन फिर भी नन्ही बालिका अश्वथा बीजू ने अपने बचपन के जीवाश्मिकी हॉबी को ना सिर्फ अपनी पढ़ाई और अनुसंधान का विषय बनाया बल्कि बड़ी होकर जीवाश्म को अपना करियर बनाने का भी फैसला किया, इसके अलावा वो अपनी क्लास मेट्स को भी इस विषय पर इंटरेस्ट लेने के लिए मोटिवेट करती है।
अश्वथा बीजू जब सिर्फ दो साल की थी तब से समुंदर किनारे रेत से तरह तरह की सीपियां, घोंगे, कौड़ियां, स्नेल को देख कर बहुत खुश होती थी और उन्हें उठाकर घर ले आती थी। अश्वथा के पिता ने जब अपनी बेटी की दिलचस्पी समुंद्र तट की इन जीवों और उनके अवशेषों के प्रति देखा तो वे बेटी के लिए एक फॉसिल इनसाइक्लोपीडिया ले आए। अश्वथा जब पांच साल की हुई तो उस इनसाइक्लोपीडिया को देखना शुरू किया। यह जीवाश्मों के बारे में जानने का उसका पहला प्रयास था। जब वो थोड़ी और बड़ी हुई तो इसे पूरी तरह पढ़ डाला और तब उसे ऐसे अमोनाइट जीवाश्म नमूनों के बारे में जानने का मौका मिला जो विलुप्त हो गए थे। उन्ही दिनों उसकी मां उसे जीवाश्मों के बारे में और जानकारी दिलाने के लिए, चेन्नई एग्मोर गवरनमेंट म्यूजियम ले गई। दस वर्ष की उम्र तक आते आते इस होनहार बच्ची ने प्रोफेसर म्यू के निर्देशन में, जीवाश्म को लेकर गहन अध्धयन और फील्ड वर्क करना शुरू किया। माता पिता का उसे सपोर्ट मिलता रहा और कई विशेषज्ञों तथा अनुसंधान केंद्रो के संपर्क में उसने इस विषय पर गहरा ज्ञान और प्रैक्टिकल कुशलता हासिल की, फिर तमिलनाडु के कई स्कूल कॉलेजों में इस विषय के सत्र भी संभाले। अश्वथा ने जीवाश्म से संबंधित कई शोध यात्राएं की और उसका एक बड़ा संग्रह इकट्ठा किया। इस छोटी सी उम्र में, जीवाश्म जैसे कम लोकप्रिय विषय पर इतनी गहराई से शोध कार्य करने के असाधारण उपलब्धि और जीवाश्मों के संरक्षण के प्रति जागरूकता पैदा करने के कारण अश्वथा को प्रधान मंत्री राष्ट्रीय बाल पुरस्कार (पीएमआरबीपी) से सम्मानित किया गया और एक लाख की राशि भी दी गई।
-सुलेना मजुमदार अरोरा