Rukhmabai: भारत की पहली महिला चिकित्सक और समाज सुधारक

रुख्माबाई (Rukhmabai) का जन्म 22 नवंबर 1864 को मुंबई में हुआ था। उनके पिता, जनार्दन पांडुरंग, का निधन उनके बचपन में ही हो गया, जिसके बाद उनकी माता, जयंतिबाई, ने डॉ. सखाराम अर्जुन से पुनर्विवाह किया।

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Rukhmabai: India's first female physician and social reformer
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रुख्माबाई (Rukhmabai) का जन्म 22 नवंबर 1864 को मुंबई में हुआ था। उनके पिता, जनार्दन पांडुरंग, का निधन उनके बचपन में ही हो गया, जिसके बाद उनकी माता, जयंतिबाई, ने डॉ. सखाराम अर्जुन से पुनर्विवाह किया। डॉ. सखाराम अर्जुन एक प्रतिष्ठित चिकित्सक और समाज सुधारक थे, जिन्होंने रुख्माबाई की शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

Rukhmabai का जन्म 22 नवंबर 1864 को मुंबई में जनार्दन पांडुरंग और जयंतिबाई के मराठी परिवार में हुआ था। जब रुख्माबाई केवल दो साल की थीं, तब उनके पिता का निधन हो गया। उनके पिता की मृत्यु के छह साल बाद, उनकी मां जयंतिबाई ने बंबई के एक जाने-माने चिकित्सक और समाज सुधारक, डॉ. सखाराम अर्जुन से पुनर्विवाह किया। जयंतिबाई की जाति (सुथार समुदाय) में विधवा विवाह की अनुमति थी।

जब रुख्माबाई मात्र 11 साल की थीं, उनका विवाह उनके सौतेले पिता के रिश्तेदार 19 वर्षीय दादाजी भीकाजी से कर दिया गया। परंपराओं से हटकर, यह तय हुआ कि दादाजी रुख्माबाई के परिवार के साथ घरजवाई के रूप में रहेंगे और उनकी पढ़ाई-लिखाई का ध्यान रखा जाएगा ताकि वे एक शिक्षित और अच्छे इंसान बन सकें।

हालांकि, शादी के छह महीने बाद, जब रुख्माबाई किशोरावस्था में पहुंचीं, तो परिवार में विवाह संबंध की शारीरिक शुरुआत (गर्भाधान संस्कार) का आयोजन किया गया। लेकिन डॉ. सखाराम अर्जुन, जो अपने प्रगतिशील विचारों और चिकित्सा ज्ञान के लिए प्रसिद्ध थे, ने कम उम्र में इस परंपरा की अनुमति नहीं दी।

शादीशुदा जीवन में संघर्ष

दादाजी भीकाजी को यह व्यवस्था और शिक्षा की सख्ती पसंद नहीं आई। उनकी पढ़ाई में रुचि नहीं थी और उन्हें यह बुरा लगा कि उनके परिवार ने उन्हें "अच्छा इंसान" बनने के लिए मजबूर किया। जबरदस्ती छठी कक्षा में पढ़ने के लिए भेजा जाना उन्हें और परेशान कर गया। इन परिस्थितियों में, दादाजी ने अपनी मां को खो दिया और डॉ. सखाराम अर्जुन की सलाह के खिलाफ जाकर अपने मामा नारायण धर्मजी के घर रहने लगे।

नारायण धर्मजी के घर का माहौल उनके लिए नुकसानदेह साबित हुआ। वे आलस्य और गैर-जिम्मेदाराना जीवन जीने लगे और कर्ज में डूब गए। उन्होंने सोचा कि रुख्माबाई की संपत्ति का उपयोग करके वे अपने कर्ज चुका सकते हैं। लेकिन जब रुख्माबाई ने उनके घर जाकर रहने से इनकार कर दिया, तो यह विवाद और बढ़ गया। उनके इस फैसले में उनके सौतेले पिता डॉ. सखाराम अर्जुन ने पूरा समर्थन दिया।

शिक्षा और समाज सुधार की दिशा में रुख्माबाई

इन कठिन परिस्थितियों के बीच, रुख्माबाई ने घर पर पढ़ाई जारी रखी। वे फ्री चर्च मिशन लाइब्रेरी की किताबों का उपयोग करके शिक्षा ग्रहण करती थीं। उनके पिता के समाज सुधारकों और धार्मिक विचारकों के संपर्क के कारण, रुख्माबाई को कई प्रगतिशील विचारकों से मिलने का मौका मिला।

वे नियमित रूप से अपनी मां के साथ प्रार्थना समाज और आर्य महिला समाज की साप्ताहिक बैठकों में भाग लेती थीं। इन बैठकों और उनके संपर्क में आने वाले समाज सुधारकों ने रुख्माबाई के विचारों को व्यापक रूप से प्रभावित किया और उन्हें महिला सशक्तिकरण और समाज सुधार के लिए प्रेरित किया।

रुख्माबाई ने चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करने का निर्णय लिया और 1889 में इंग्लैंड के लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन फॉर विमेन में दाखिला लिया। 1894 में, उन्होंने अपनी चिकित्सा शिक्षा पूर्ण की और भारत लौटकर सूरत और राजकोट में चिकित्सा सेवा प्रदान की। उन्होंने महिलाओं के स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया और 1929 में सेवानिवृत्त हुईं।

रुख्माबाई का जीवन संघर्ष, साहस और समाज सुधार के प्रति समर्पण का प्रतीक है। उन्होंने न केवल चिकित्सा के क्षेत्र में बल्कि महिला अधिकारों और सामाजिक न्याय के लिए भी महत्वपूर्ण कार्य किए।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs):

  1. रुख्माबाई कौन थीं?

    • रुख्माबाई भारत की पहली महिला चिकित्सकों में से एक थीं, जिन्होंने बाल विवाह और महिला अधिकारों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी।
  2. रुख्माबाई का जन्म कब और कहाँ हुआ था?

    • उनका जन्म 22 नवंबर 1864 को मुंबई में हुआ था।
  3. रुख्माबाई ने चिकित्सा शिक्षा कहाँ से प्राप्त की?

    • उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन फॉर विमेन से चिकित्सा शिक्षा प्राप्त की।
  4. रुख्माबाई का विवाह कब हुआ था?

    • उनका विवाह 11 वर्ष की आयु में दादाजी भीकाजी से हुआ था।
  5. रुख्माबाई का निधन कब हुआ?

    • उनका निधन 25 सितंबर 1955 को हुआ।

Rukhmabai का जीवन संघर्ष और साहस का प्रतीक है। उन्होंने अपनी शिक्षा और प्रगतिशील विचारों से न केवल अपने व्यक्तिगत जीवन में बदलाव लाया, बल्कि समाज में भी एक नई दिशा दी। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि कठिनाइयों का सामना करके और अपनी पहचान बनाने के लिए शिक्षा और आत्मविश्वास कितना महत्वपूर्ण है।

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