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मल्लखम्ब (Mallakhamb) एक प्राचीन पारम्परिक भारतीय खेल हैं, जिसमे मल्ला मतलब व्ययामि होता है और खम्ब मतलब छोर होता है। इसलिए मल्लखम्ब का मतलब व्ययामि छोर होता है। सबसे पहले मल्लखम्ब का जिक्र 21 वी सदी में किया गया था जहाँ इसका उल्लेख मनसोल्हास 1135 ऐ डी में हुआ था। कहा जाता है की मध्यकालीन महाराष्ट्र और हैदराबाद में इसे किया जाता था लेकिन 18 वी सदी तक यह भारत में इतना मशहूर नहीं था। इसे पेशवा बाजीराव 2 के फिटनेस गुरु बलम्भाट दादा देवधर ने दुबारा से शुरू किया।
इस खेल को और मांकित और अनुशासनिया करने के लिए 1980 में मल्लखम्ब फेडरेशन ऑफ इंडिया को बनाया गया। इस संस्थान का काम जिला, राष्ट्र और नेशनल लेवल पर मल्लखम्ब के समारोह करवाना है। फिलहाल मल्लखम्ब की सभी प्रतियोगिता मल्लखम्ब फेडरेशन ऑफ इंडिया के बनाये रूल के निर्देशन पर की जाती है। इस फेडरेशन के साथ 29 शहर जुड़े हुए है। मल्लखम्ब प्रतियोगिता के 3 तरीके होते है।
पोल मल्लखम्ब
इसमें जमीन के अंदर एक सीधा लकड़ी का डंडा गाड़ा जाता है और यह लकड़ी टीकवुड या फिर शीशम की होती है क्यूंकि यह सख्त मजबूत और मुलायम होती है। यह डंडा जमीन से 55 सेंटीमीटर ऊपर होता है।नीचे से यह 45 सेंटीमीटर मोटा और बीच में 30 सेंटीमीटर मोटा और ऊपर से 20 सेंटीमीटर मोटा होता है। गर्दन की लम्बाई 15 सेंटीमीटर होती है और उसकी चैड़ाई 13 सेंटीमीटर होती है।
लटकने वाला मल्लखम्ब
यह मल्लखम्ब का छोटा अनुवाद है। इसमें हुक और चेन लगी होती है। इसका हिलना और गोल गोल घूमना, इस पारकर के मल्लखम्ब को और मुश्किल बनाता है।
रस्सी वाला मल्लखम्ब
इसमें लकड़ी के डंडे की जगह एक काॅटन की 2.5 सेंटीमीटर मोटी रस्सी होती है। इसमें प्रतियोगियों को बिना रस्सी में गाँठ लगाए अलग अलग तरह के योग आसान करने होते है।