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यह कहानी एक गीदड़ (शौर्य) की है, जिसे शेरनी द्वारा पाला जाता है, जिससे वह खुद को शेर समझने लगता है। एक दिन, जब उसका सामना एक हाथी से होता है, तो उसका जन्मजात डर सामने आ जाता है और वह अपने शेर भाइयों को भागने पर मजबूर कर देता है। शावक उसका मज़ाक उड़ाते हैं, जिससे वह क्रोधित होकर झगड़ने लगता है। तब शेरनी उसे बताती है कि उसका मूल स्वभाव, जो डर और सतर्कता से भरा है, उसके 'गीदड़' कुल के कारण है। यह जानकरी मिलते ही, शौर्य को एहसास होता है कि वह शेरों के बीच सुरक्षित नहीं है और वह अपने कुल, गीदड़ों के झुंड में शामिल होने के लिए गुफा छोड़ देता है। चलिए पढ़ें ये सीख देती कहानी :-
शाही परिवार में एक अजनबी मेहमान
घने जंगल के हृदय में, जहाँ सूरज की किरणें भी मुश्किल से पहुँच पाती थीं, एक विशाल गुफा थी। इस गुफा में राजा और रानी की तरह रहने वाले, वनराज सिंह और उनकी पत्नी शेरनी, गौरी, निवास करते थे। उनके दो छोटे-छोटे शावक (बच्चे) थे, जो अपनी माँ के संरक्षण में बलशाली बनने का प्रशिक्षण ले रहे थे।
वनराज सिंह हर दिन शिकार पर निकलते और अपने परिवार के लिए भोजन लाते थे। एक दिन, वे घंटों जंगल में भटकते रहे, लेकिन हाथ निराशा ही लगी। थके-हारे लौटते समय, उन्हें रास्ते में एक नन्हा, बिलखता हुआ प्राणी दिखा—वह एक गीदड़ का बच्चा था। वह शायद अपने झुंड से बिछड़ गया था।
वनराज सिंह दयालु थे। उन्होंने उसे यूँ ही भूखा मरने देना उचित नहीं समझा। उन्होंने सावधानी से उस नन्हें गीदड़ को अपने मुँह में दबाया और गुफा ले आए।
गुफा में आकर उन्होंने गौरी से कहा, "प्रिये, आज शिकार तो नहीं मिला, पर यह नन्हा मेहमान मिल गया। यह बहुत छोटा है और निरीह दिख रहा है। मेरा दिल नहीं माना कि इसे मारूँ। तुम क्या कहती हो? क्या इसे खाकर आज की भूख शांत करोगी?"
गौरी का हृदय विशाल था। उसने गीदड़ के बच्चे की मासूम आँखें देखीं और ममता से भर गई। वह बोली, "नहीं, प्राणनाथ! जिसे आपने दयावश जीवनदान दिया है, मैं उसे कैसे मार सकती हूँ? आप चिंता न करें, आज से यह हमारी तीसरी संतान है। मैं इसे अपने बच्चों के साथ पालूँगी। इसे अपना दूध पिलाऊँगी और इसे बहादुर शावक बनाऊँगी।"
वनराज सिंह मुस्कुराए। उन्हें गौरी का निर्णय बहुत पसंद आया।
शाही जीवन और भूल गया गीदड़पन
उस दिन से, वह गीदड़ का बच्चा, जिसका नाम बाद में "शौर्य" पड़ गया, शेरों के बीच पलने लगा। शेरनी गौरी ने उसे अपने शावकों के साथ पाला, उसे वही दूध पिलाया, और वही प्यार दिया। शौर्य को कभी एहसास ही नहीं हुआ कि वह उन बड़े, रोएँदार, और दहाड़ने वाले जीवों से अलग है। वह शेरों को ही अपना कुल और परिवार मानता था।
समय तेजी से भागा। तीनों बच्चे – दो शेर के शावक और गीदड़ शौर्य – अब किशोर अवस्था में थे। वे साथ खेलते, लड़ते, और शिकार के शुरुआती सबक सीखते थे।
एक दोपहर, तीनों दोस्त जंगल की खुली ज़मीन पर खेल रहे थे। उछल-कूद और मस्ती चल रही थी कि अचानक जंगल में ज़ोरदार चिंघाड़ सुनाई दी। एक मदमस्त, विशालकाय हाथी अपनी राह बनाते हुए तेज़ी से उनके नज़दीक आ पहुँचा।
हाथी को देखते ही, दोनों शेर शावकों की आँखें दहक उठीं। उनके रौएँ खड़े हो गए और वे जन्मजात वीरता से भरकर दहाड़ने लगे।
एक शावक गुर्राया, "चलो, भाई! आज इस दुष्ट को सबक सिखाते हैं! इसे दिखाते हैं कि जंगल का राजा कौन है!"
लेकिन गीदड़ शौर्य का हाल एकदम जुदा था। उस पल, उसके अंदर सदियों से दबी उसकी प्रजाति का भय जाग उठा। उसके पैर काँपने लगे, और वह तुरंत पीछे हट गया।
शौर्य ने घबराकर दोनों भाइयों से कहा, "रुको! रुको, मेरे भाइयों! यह... यह हाथी है! यह बहुत बलशाली है! इससे दुश्मनी नहीं मोल लेते! हम इसका सामना नहीं कर सकते। हमें छिप जाना चाहिए! भागो! भाग चलो!"
दोनों शावकों ने शौर्य की बात मानी और तीनों गुफा की ओर भाग गए।
बहस, उपहास, और शेरनी का हस्तक्षेप
गुफा पहुँचकर दोनों शावकों ने तुरंत अपनी माँ को जंगल की घटना बताई।
पहला शावक बोला, "माँ! आज तो कमाल हो गया! एक हाथी आया, पर जैसे ही हमने दहाड़ लगाई, शौर्य डर गया और हमें भागने पर मजबूर कर दिया। वह बोला, 'हाथी से शत्रुता मोल नहीं लेते'!"
दूसरे शावक ने हँसते हुए कहा, "हाँ, माँ! वह सच में बहुत डरा हुआ था। शायद वह हमसे ज़्यादा कमज़ोर है। क्या वह कभी हमारी तरह बहादुर बन पाएगा?"
दोनों मिलकर शौर्य का उपहास करने लगे।
शौर्य को अपनी कायरता पर शर्म तो आई, पर साथ ही गुस्सा भी आया कि उसके भाई उसका मज़ाक उड़ा रहे हैं।
शौर्य गुस्से में चिल्लाया, "बस! बहुत हो गया उपहास! तुम किस मामले में मुझसे बड़े हो? तुम हमेशा मुझे चिढ़ाते हो! मैं भी बहादुर हूँ, तुम दोनों से कम नहीं! मैं अभी तुम्हें मज़ा चखा सकता हूँ!"
गुस्से में शौर्य अपनी असली पहचान भूल गया। वह झगड़ने लगा और यहाँ तक कह डाला कि वह अपने भाइयों को मार सकता है।
यह झगड़ा सुनकर शेरनी गौरी बेचैन हो गई। उसे पता था कि यह बहस अब केवल उपहास की नहीं रही, बल्कि जीवन-मरण का सवाल बन सकती है। उसे हस्तक्षेप करना पड़ा।
शेरनी ने शौर्य को प्यार से अपने पास बुलाया और कहा, "पुत्र, शांत हो जाओ। मेरी बात ध्यान से सुनो। तुम सच में बहादुर हो, इसमें कोई संदेह नहीं, क्योंकि तुम शेरों के बीच पले हो।"
वह रुकी और उसकी आँखों में देखते हुए धीरे से बोली, "लेकिन जिस कुल में तुम जन्मे हो, वहाँ हाथी से दुश्मनी मोल नहीं ली जाती। जिस क्षण तुमने हाथी को देखा और तुम्हारे मन में डर जागा, उस पल तुम्हारे भीतर सदियों से चले आ रहे तुम्हारे कुल के संस्कार जाग उठे।"
"तुम... तुम मेरे बच्चे हो, लेकिन शेर नहीं हो, पुत्र। तुम एक गीदड़ हो। मैंने तुम्हें अपने खून से नहीं, अपने दूध से पाला है।"
वास्तविकता का प्रहार और वापसी
शेरनी के ये शब्द शौर्य के लिए किसी वज्रपात से कम नहीं थे। गीदड़? मैं? एक शेर नहीं?
शौर्य को अपने जन्म का रहस्य पता चला। उसे याद आया कि जब हाथी आया था, तो उसके मन में डर क्यों पैदा हुआ था, जबकि उसके भाइयों के मन में लड़ने की हिम्मत थी।
शेरनी ने उसे समझाया, "तुम्हारे संस्कार और स्वभाव, तुम्हारी प्रजाति का अनुसरण करते हैं। भले ही तुम्हारा परिवेश शाही हो गया हो, पर तुम्हारा मूल स्वभाव नहीं बदला। अगर तुम्हारे भाइयों को तुम्हारी असलियत पता चली, तो वे तुम्हें अपना शत्रु समझेंगे और तुम्हारी जान ख़तरे में पड़ जाएगी। अब तुम्हारा यही कल्याण है कि तुम अपने कुल (गीदड़ों) के बीच जाओ और उनके साथ जीवन बिताओ।"
शौर्य की आँखें भर आईं। उसे लगा जैसे उसका पूरा संसार उजड़ गया हो। उसने अपनी पालक माँ को देखा और बिना कुछ कहे, दुखी मन से उस गुफा को छोड़ दिया जहाँ उसने अपना पूरा जीवन बिताया था। वह तेज़ी से भागा, और जंगल में जाकर अपने गीदड़ों के दल में शामिल हो गया, जहाँ उसने कभी सोचा भी नहीं था कि वह जाएगा।
उसने सीखा कि संस्कार और मूल स्वभाव, कितने भी बड़े परिवेश के दबाव में क्यों न हों, सही समय पर बाहर आ ही जाते हैं। गीदड़, शेर बनकर भी गीदड़ ही रहा।
कहानी से मिली सीख (Moral of the Story / Shiksha)
"संगत का असर ज़रूर होता है, पर मूल स्वभाव और संस्कार मिटते नहीं। मनुष्य को अपने मूल को कभी नहीं भूलना चाहिए, क्योंकि आपका 'कुल' या 'प्रजाति' आपके व्यवहार और चरित्र में निर्णायक भूमिका निभाती है।"
यह कहानी यह भी सिखाती है कि व्यक्ति को अपना स्तर और अपनी सीमाएँ हमेशा याद रखनी चाहिए, और अहंकार से दूर रहना चाहिए।
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