झूठी शान का कड़वा फल: कैसे एक उल्लू ने घमंड में खोया अपना सबसे प्यारा दोस्त? | प्रेरणादायक हिंदी कहानी

झूठी शान का कड़वा फल:- यह कहानी एक उल्लू की है जो एक शाही हंस से दोस्ती करता है। अपनी बराबरी दिखाने के लिए उल्लू झूठ बोलता है कि वह भी राजा है और हंस को अपने किले (जहाँ सेना रहती है) में आमंत्रित करता है।

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झूठी शान का कड़वा फल:- यह कहानी एक उल्लू की है जो एक शाही हंस से दोस्ती करता है। अपनी बराबरी दिखाने के लिए उल्लू झूठ बोलता है कि वह भी राजा है और हंस को अपने किले (जहाँ सेना रहती है) में आमंत्रित करता है। वह सेना की दैनिक परेड को अपने स्वागत के रूप में प्रस्तुत करता है। जब सेना को कूच करने का आदेश मिलता है, तो उल्लू उन्हें 'हूं हूं' करके रोकने की कोशिश करता है, जिसे सैनिक अपशकुन मानते हैं। क्रोधित होकर सैनिक नायक उल्लू को मारने का आदेश देता है, लेकिन तीर गलती से हंस को लग जाता है और वह मर जाता है। अपने दोस्त की मौत पर विलाप करते हुए उल्लू पर एक सियार हमला कर देता है। यह कहानी सिखाती है कि झूठी शान और दिखावा हमेशा हानिकारक होता है। चलिए पढ़ते हैं ये कहानी :-


एक घने जंगल में, एक ऊँचे पहाड़ की चोटी पर एक प्राचीन किला खड़ा था। किले के एक बाहरी कोने से सटा हुआ एक विशाल और ऊँचा देवदार का पेड़ था। इस किले में उस राज्य की सेना की एक टुकड़ी तैनात रहती थी। इसी देवदार के पेड़ पर एक उल्लू का बसेरा था।

उल्लू अक्सर भोजन की तलाश में नीचे घाटी में फैले ढलानदार चरागाहों में आता था। इन चरागाहों की लंबी घासों और झाड़ियों में उसे कई छोटे-मोटे जीव और कीट-पतंगे मिल जाते थे, जिन्हें वह अपना भोजन बनाता था। पास ही एक बड़ी झील भी थी, जहाँ हंसों का झुंड रहता था। उल्लू अक्सर अपने पेड़ पर बैठकर उस झील को निहारा करता था। हंसों का पानी में तैरना और हवा में उड़ना उसे मंत्रमुग्ध कर देता था।

"वाह! कितने शानदार पक्षी हैं ये हंस," उल्लू मन ही मन सोचता था। "एकदम दूध-सा सफेद रंग, कोमल शरीर, सुंदर गर्दन, और तेज़ आँखें। काश, मेरी भी किसी हंस से दोस्ती हो जाए!"

एक दिन, उल्लू ने पानी पीने के बहाने झील के किनारे उगी एक झाड़ी पर उड़ान भरी। वहीं पास में, एक बहुत ही शालीन और सौम्य हंस पानी में तैर रहा था। हंस तैरता हुआ झाड़ी के पास आया।

उल्लू ने बात शुरू करने का बहाना ढूँढा। "हंस जी, अगर आपकी आज्ञा हो तो क्या मैं थोड़ा पानी पी सकता हूँ? मुझे बहुत प्यास लगी है।"

हंस ने चौंककर उसे देखा और मुस्कुराते हुए कहा, "मित्र! पानी प्रकृति का दिया हुआ वरदान है। इस पर किसी एक का अधिकार नहीं होता। आप जब चाहें, जितना चाहें पी सकते हैं।"

उल्लू ने पानी पीया, फिर सिर हिलाया जैसे उसे कोई निराशा हुई हो।

हंस ने पूछा, "मित्र! तुम असंतुष्ट नज़र आते हो। क्या तुम्हारी प्यास नहीं बुझी?"

उल्लू ने एक गहरी साँस ली और बोला, "हे हंसराज! पानी की प्यास तो बुझ गई, पर आपकी बातों से मुझे ऐसा लगा कि आप नीति और ज्ञान के सागर हैं। मेरी आत्मा में उसकी प्यास जग गई है। वह कैसे बुझेगी?"

हंस मुस्कुराया। "मित्र, आप कभी भी यहाँ आ सकते हैं। हम बातें करेंगे। इस प्रकार, जो मैं जानता हूँ वह आपका हो जाएगा, और मैं भी आपसे कुछ सीखूँगा।"

इसके बाद, हंस और उल्लू रोज़ मिलने लगे। उनकी दोस्ती गहरी होती गई। एक दिन, हंस ने उल्लू को बताया कि वह वास्तव में हंसों का राजा, हंसराज है। अपना असली परिचय देने के बाद, हंसराज अपने नए मित्र को अपने महल ले गया। वहाँ शाही ठाठ-बाट देखकर उल्लू दंग रह गया। खाने के लिए कमल और नरगिस के फूलों के स्वादिष्ट व्यंजन परोसे गए, और न जाने क्या-क्या दुर्लभ खाद्य पदार्थ थे, जिनके बारे में उल्लू को पहले कभी पता ही नहीं था। दावत के बाद, सौंफ-इलायची की जगह उन्हें मोतियों का भोग लगाया गया। यह सब देखकर उल्लू की आँखें फटी रह गईं।

अब हंसराज रोज़ उल्लू को अपने महल में बुलाता और उसे तरह-तरह के पकवान खिलाता-पिलाता। रोज़ दावतें उड़ती थीं। उल्लू को अंदर ही अंदर यह डर सताने लगा कि कहीं एक दिन हंसराज उसे एक साधारण उल्लू समझकर अपनी दोस्ती न तोड़ ले।

इसी डर के कारण, और खुद को हंसराज के बराबर दिखाने के लिए, उसने झूठमूठ कह दिया कि वह भी उल्लुओं का राजा, उलकराज है। यह झूठ बोलने के बाद, उल्लू को लगा कि अब उसका भी फर्ज़ बनता है कि वह हंसराज को अपने घर बुलाए और उसकी मेजबानी करे।

एक दिन, उल्लू ने किले के भीतर होने वाली गतिविधियों को बहुत गौर से देखा। उसने सैनिकों के कार्यक्रम और दुर्ग की सभी बातों को ध्यान से समझा और अपनी याददाश्त में नोट कर लिया। फिर वह चला हंसराज के पास। जब वह झील पर पहुँचा, तो हंसराज कुछ हंसनियों के साथ जल में तैर रहा था। उल्लू को देखते ही हंसराज बोला, "मित्र, तुम इस समय? सब ठीक तो है?"

उल्लू ने जवाब दिया, "हाँ मित्र! मैं आपको आज अपना घर दिखाने और अपना मेहमान बनाने के लिए ले जाने आया हूँ। मैं कई बार आपका मेहमान बना हूँ, अब मुझे भी आपकी सेवा का मौका दें।"

हंसराज ने टालना चाहा, "मित्र, इतनी जल्दी क्या है? फिर कभी चलेंगे।"

लेकिन उल्लू नहीं माना। "आज तो मैं आपको लिए बिना नहीं जाऊँगा। आपको मेरे साथ चलना ही होगा।"

हंसराज को उल्लू के साथ जाना ही पड़ा।

पहाड़ की चोटी पर बने किले की ओर इशारा करते हुए उल्लू उड़ते-उड़ते बोला, "वह मेरा किला है, और वहीं मेरा महल है।"

हंसराज यह सुनकर बहुत प्रभावित हुआ। वे दोनों जब उल्लू के आवास वाले देवदार के पेड़ पर उतरे, तो ठीक उसी समय किले के सैनिकों की परेड शुरू होने वाली थी। दो सैनिक बुर्ज पर बिगुल बजाने लगे। उल्लू दुर्ग के सैनिकों के दैनिक कार्यक्रम को अच्छी तरह याद कर चुका था, इसलिए वह ठीक समय पर हंसराज को ले आया था।

उल्लू गर्व से बोला, "देखो मित्र, आपके स्वागत में मेरे सैनिक बिगुल बजा रहे हैं। उसके बाद मेरी सेना परेड और सलामी देकर आपको सम्मानित करेगी।"

नित्य की तरह परेड हुई और झंडे को सलामी दी गई। हंसराज यह देखकर सचमुच समझा कि यह सब उसी के सम्मान में हो रहा है। वह गदगद होकर बोला, "धन्य हो मित्र! आप तो एक शूरवीर राजा की भाँति ही राज कर रहे हो। आपका यह आतिथ्य सत्कार अविस्मरणीय है।"

उल्लू ने हंसराज पर और रौब डाला, "मैंने अपने सैनिकों को आदेश दिया है कि जब तक मेरे परम मित्र राजा हंसराज मेरे अतिथि हैं, तब तक इसी प्रकार रोज़ बिगुल बजे और सैनिकों की परेड निकले।"

उल्लू को पता था कि सैनिकों का यह रोज़ का काम है, उनका दैनिक नियम है, लेकिन उसने अपने झूठ को और पुख़्ता कर दिया। उल्लू ने हंसराज को अपने जमा किए हुए फल, अखरोट और बनफ्शा के फूल खिलाए। भोजन का महत्व अब गौण हो चुका था। सैनिकों की परेड का जादू अपना काम कर चुका था। हंसराज के दिल में अपने मित्र उल्लू के लिए बहुत सम्मान पैदा हो चुका था।

उधर, सेना की टुकड़ी को उस किले से कूच करने के आदेश मिल चुके थे। दूसरे दिन सैनिक अपना सामान समेटकर जाने लगे तो हंसराज ने हैरानी से कहा, "मित्र, देखो! आपके सैनिक आपकी आज्ञा लिए बिना कहीं जा रहे हैं। क्या हुआ?"

उल्लू हड़बड़ा गया। उसका झूठ अब उसके सामने आ रहा था। "किसी ने उन्हें गलत आदेश दिया होगा! मैं अभी रोकता हूँ उन्हें!" ऐसा कहकर वह ज़ोर-ज़ोर से 'हूं हूं' करने लगा।

सैनिकों ने उल्लू का घुघुआना सुना, और उसे अपशकुन समझकर अपनी यात्रा स्थगित कर दी। दूसरे दिन फिर वही हुआ। सैनिक जाने लगे तो उल्लू फिर ज़ोर-ज़ोर से 'हूं हूं' करके उन्हें रोकने लगा। सैनिकों के नायक को बहुत क्रोध आया। उसने अपने सैनिकों को उस 'मनहूस' उल्लू को तीर मारने का आदेश दिया।

एक सैनिक ने धनुष पर तीर साधा और छोड़ दिया। लेकिन तीर उल्लू की बगल में बैठे हंसराज को लगा। वह तीर खाकर पेड़ से नीचे गिरा और फड़फड़ाकर वहीं मर गया। उल्लू उसकी लाश के पास शोकाकुल होकर विलाप करने लगा।

"हाय! मैंने अपनी झूठी शान के चक्कर में अपना परम मित्र खो दिया! धिक्कार है मुझे! अगर मैंने झूठ न बोला होता, तो आज मेरा मित्र जीवित होता!"

उल्लू को आसपास की खबर से बेसुध होकर रोते देखकर, एक भूखा सियार उस पर झपटा और उसका भी काम तमाम कर दिया। इस प्रकार, अपनी झूठी शान और दिखावे के कारण उल्लू ने न केवल अपना सबसे अच्छा दोस्त खोया, बल्कि अपनी जान भी गँवा दी।

सीख (Moral of the Story):

यह कहानी हमें एक बहुत गहरा और महत्वपूर्ण सबक सिखाती है: झूठी शान बहुत महंगी पड़ती है। कभी भी झूठी शान और दिखावे के चक्कर में मत पड़ो। दिखावा हमें सच्चाई से दूर ले जाता है और अक्सर हमें ऐसी मुश्किलों में डाल देता है जहाँ से निकलना असंभव हो जाता है। सच्ची दोस्ती और सम्मान ईमानदारी पर आधारित होते हैं। हमें अपने आप को वैसा ही स्वीकार करना चाहिए जैसे हम हैं, और अपनी सच्चाई को कभी नहीं छिपाना चाहिए। घमंड और झूठ का परिणाम हमेशा बुरा होता है, और यह न केवल हमें, बल्कि हमारे प्रियजनों को भी नुकसान पहुँचा सकता है। सच्चा सम्मान और प्यार, सच बोलने और ईमानदार रहने से ही मिलता है।

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