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डॉ राजेंद्र भारुद की जीवनी: महाराष्ट्र के नंदुरबार में, एक छोटे से गाँव के बेहद गरीब परिवार में एक बालक का जन्म हुआ। माँ ने नाम रखा राजू। जन्म से कुछ दिन पहले ही पिता की मृत्यु हो गई थी। गरीबी इतनी थी कि उनके सर पर छत भी नहीं था। किसी तरह माँ ने गांव से बाहर जंगल के पास एक झोपड़ी बनाई और गाँव वालों को नाश्ता, मूंगफली बेचकर बच्चों का पेट पालने लगी। उस गरीब अनपढ़ माँ की बहुत इच्छा थी कि उनके दोनों बच्चे कुछ पढ़ लिख ले। इसलिए थोड़ा बड़ा होने पर मां ने दोनों बच्चों को पास के पाठशाला में डाल दिया।
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राजू पढ़ने में होशियार था। पढ़ाई से जो वक्त बचता वो मां की मदद करते हुए ग्राहकों तक नाश्ता या सामान पहुँचाता। एक दिन जब वह पढ़ाई कर रहा था तो किसी ग्राहक में उसे दुकान से कुछ लाने के लिए भेजा लेकिन राजू ने मना कर दिया। इस पर ग्राहक ने उसका मजाक उड़ाते हुए कहा, "पढ़कर डॉक्टर इंजीनियर या कलेक्टर बनेगा क्या?" बेटा कुछ कहता इससे पहले मां ने सर तान कर जवाब दिया, "हां मेरा बेटा कलेक्टर बनेगा।" हालांकि मां को कलेक्टर शब्द का मतलब ही नहीं मालूम था।
बस फिर क्या था, राजू के मन में माँ की बात बैठ गई। उसने तय कर लिया कि वो कलेक्टर जरूर बनेगा। शिक्षक ने बताया कि इसके लिए बहुत पढ़ाई और मेहनत करनी पड़ती है तो वह दिन रात पढ़ाई करने लगा। पाठशाला की पढ़ाई पूरी हुई तो आगे की पढ़ाई के लिए उसे 150 किलोमीटर दूर सीबीएसई में दाखिला लेना पड़ा। एक दूसरे से दूर होने पर माँ बेटे खूब रोए। लेकिन मां की बात पूरी करने के लिए उसने वहीं रह कर आगे की पढ़ाई की। 12वीं में 97℅ प्रतिशत लाने से उनका सिलेक्शन मेडिकल में हो गया।
मुंबई के मेडिकल कॉलेज में स्कॉलरशिप के सहारे एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी की और साथ ही जी तोड मेहनत करके आई ए एस की पढ़ाई की तैयारी भी की और आखिर उन्हें दो दो कामयाबी मिल गई। वे डॉक्टर भी बन गए और आईएएस में भी अच्छे रैंक लाए। जब वे वापस घर लौटे तो दूर-दूर से बड़े-बड़े लोग उन्हें बधाई देने आए। हालांकि गांव वालों को समझ मे ही नहीं आया कि कलेक्टर बनना क्या होता है, इसीलिए कई लोग तो उन्हें कंडक्टर बनने की बधाई देने पहुंच गए।
अब राजू कलेक्टर के रूप में अपने गांव और आसपास के लोगों का जीवन बेहतर बनाने के लिए कमर कस चुके हैं। लोग अब उन्हें राजू नहीं डॉ राजेंद्र भारुद जी पुकारते हैं, लेकिन वे अपने गरीब गांव वालों के लिए आज भी राजू ही है जो उनके साथ कंचे खेलता था, नदी में नहाता था, पेड़ पर चढ़कर आम तोड़ता था।
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि परिस्थिति चाहे कैसी भी हो अगर इंसान मन में ठान ले और खूब मेहनत करे तो कोई भी उसे अपनी मंजिल तक पहुंचने से नहीं रोक सकता
-सुलेना मजुमदार अरोरा।