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इस कहानी में हम लोहड़ी के त्योहार को एक कहानी के माध्यम से समझेंगे। इसमें चिंटू और पिंकी अपने दादाजी से लोहड़ी का महत्व पूछते हैं। हम जानेंगे कि लोहड़ी शब्द कैसे बना, दुल्ला भट्टी कौन था और हम आग में तिल-गुड़ क्यों डालते हैं। यह लेख न केवल मनोरंजन करेगा बल्कि हमारी संस्कृति की गहरी समझ भी देगा।
चलिए, पढ़ते हैं यह मजेदार कहानी...
अलाव के पास दादाजी और लोहड़ी की असली कहानी
जनवरी का महीना था और ठंड अपनी चरम सीमा पर थी। शाम होते ही कोहरा गिरने लगा था, लेकिन शर्मा जी के घर के आंगन में एक अलग ही रौनक थी। लकड़ियों का एक बड़ा ढेर लगाया गया था और पूरा परिवार उसके चारों ओर इकट्ठा हो रहा था।
10 साल का चिंटू और 8 साल की पिंकी बहुत उत्साहित थे। वे बार-बार लकड़ी के ढेर के पास जाते और फिर दौड़कर अपनी मां के पास आ जाते।
तभी दादाजी, अपने मोटे शॉल में लिपटे हुए, बाहर आए और कुर्सी पर बैठ गए। चिंटू ने उत्सुकता से पूछा, "दादाजी, आज हम यह आग क्यों जला रहे हैं? क्या सिर्फ ठंड भगाने के लिए?" दादाजी जोर से हंसे, "अरे नहीं मेरे नन्हे जासूसों! यह सिर्फ आग नहीं है, यह लोहड़ी का जश्न है। और इसके पीछे एक बहुत ही दिलचस्प कहानी और विज्ञान छिपा है।"
पिंकी ने आंखें बड़ी करते हुए कहा, "कहानी? मुझे कहानियां बहुत पसंद हैं! प्लीज सुनाइए ना!"
सर्दियों की विदाई और लोहड़ी का जन्म
दादाजी ने दोनों बच्चों को अपने पास बैठाया और बोले, "देखो बच्चों, आज की तारीख है 13 जनवरी। आज की रात साल की सबसे ठंडी और लंबी रातों में से एक है। लेकिन कल से, सूरज देवता हम पर मेहरबान हो जाएंगे। दिन बड़े होने लगेंगे और ठंड कम होने लगेगी। हमारे किसान भाई खुश होते हैं क्योंकि उनकी फसलें अब पकने की तरफ बढ़ेंगी। यह त्योहार उसी खुशी का इजहार है।"
चिंटू ने बीच में टोका, "लेकिन दादाजी, इसका नाम 'लोहड़ी' ही क्यों पड़ा?"
दादाजी ने समझाया, "बहुत अच्छा सवाल है! दरअसल, पुराने जमाने में लोग इसे 'तिलोड़ी' कहते थे। यह दो शब्दों से मिलकर बना था—'तिल' और 'रोड़ी' (गुड़)। हम इस दिन तिल और गुड़ खाते हैं, इसलिए इसे तिलोड़ी कहा गया, जो बोलते-बोलते समय के साथ 'लोहड़ी' बन गया।"
वह हीरो, जिसे कहते थे 'पंजाब का रॉबिन हुड'
तभी पास के घर से ढोल की आवाज आने लगी और गाना बजा— "सुंदर मुंदरिए हो! तेरा कौन विचारा हो! दुल्ला भट्टी वाला हो!"
पिंकी ने पूछा, "दादाजी, यह दुल्ला भट्टी कौन है? क्या यह कोई बहुत बड़ा सिंगर था?"
दादाजी मुस्कुराए और बोले, "नहीं बेटा, दुल्ला भट्टी कोई सिंगर नहीं था। वह तो पंजाब का असली हीरो था। उसे तुम उस जमाने का 'रॉबिन हुड' कह सकते हो।"
चिंटू और पिंकी एक साथ बोले, "रॉबिन हुड? वो कैसे?"
दादाजी ने कहानी शुरू की: "बात बहुत पुरानी है, जब भारत में मुगल बादशाह अकबर का राज था। उस समय पंजाब में एक बहादुर इंसान रहता था—दुल्ला भट्टी। वह अमीरों का सामान लूटता था, लेकिन अपने लिए नहीं। वह उस धन को गरीबों में बांट देता था।
उस समय कुछ बुरे लोग गरीब घर की लड़कियों को जबरदस्ती पकड़कर ले जाते थे और उन्हें बेच देते थे। दुल्ला भट्टी ने कसम खाई थी कि वह ऐसा नहीं होने देगा। उसने 'सुंदरी' और 'मुंदरी' नाम की दो लड़कियों को उन जालिमों से बचाया। सिर्फ बचाया ही नहीं, बल्कि एक पिता की तरह उनकी शादी भी करवाई।"
पिंकी ने पूछा, "फिर क्या हुआ?"
"उस समय शादी के लिए शगुन देने के लिए दुल्ला के पास पैसे नहीं थे। तो उसने क्या किया? उसने उन लड़कियों की झोली में 'शक्कर' (गुड़) डाल दी और उन्हें विदा किया। तभी से लोग उसकी याद में गाते हैं—दुल्ला भट्टी वाला हो, शक्कर पावे सेर (किलो) हो! यह गाना उसी बहादुरी और नेकी की याद दिलाता है।"
अगर आप दुल्ला भट्टी के इतिहास और उस समय के
Wikipedia: पंजाब के बारे में और जानना चाहते हैं, तो यह लिंक देख सकते हैं।
आग में पॉपकॉर्न और रेवड़ी की बारिश
कहानी सुनते-सुनते शाम गहरी हो गई थी। पापा ने माचिस जलाई और लकड़ियों के ढेर में आग लगा दी। लपटें ऊपर उठने लगीं और चारों तरफ गर्मी फैल गई।
मां एक थाली लेकर आईं जिसमें मूंगफली, रेवड़ी, फुल्ले (Popcorn) और तिल थे। चिंटू ने मुट्ठी भरी और खाने लगा। मां ने रोका, "अरे रुको! पहले 'अग्नि देवता' को खिलाओ, फिर हम खाएंगे।"
चिंटू ने हैरान होकर पूछा, "भगवान जी को भूख लगी है?"
दादाजी ने हंसते हुए समझाया, "बेटा, यह हमारा तरीका है 'थैंक यू' कहने का। अग्नि (आग) और सूर्य (सूरज) से ही हमारी फसलें पकती हैं और हमें भोजन मिलता है। इसलिए हम अपनी नई फसल का कुछ हिस्सा—जैसे मक्का और तिल—आग में डालते हैं और प्रार्थना करते हैं कि अगला साल भी खुशियों भरा हो। इसे 'आहुति' देना कहते हैं।"
बच्चों ने देखा कि घर के सभी लोग आग के चारों ओर घूम रहे थे (परिक्रमा कर रहे थे) और उसमें तिल-गुड़ डाल रहे थे। चिंटू और पिंकी ने भी वैसा ही किया। जैसे ही मक्के के दाने आग में चटकते, वे खुशी से ताली बजाते।
भांगड़ा, गिद्दा और सरसों का साग
पूजा खत्म होते ही असली मस्ती शुरू हुई। पास-पड़ोस के लोग भी आ गए। ढोल वाले ने जोर से डंका बजाया। पापा और चाचा जी ने भांगड़ा करना शुरू किया। उनके पैर जमीन पर इतनी जोर से पड़ रहे थे कि धूल उड़ रही थी। उधर, मां और चाची ने गिद्दा डाला।
पिंकी ने कहा, "दादाजी, मुझे बहुत भूख लगी है। खाने में क्या है?" दादाजी ने खुश होकर कहा, "लोहड़ी का असली मजा तो खाने में है! आज बना है मक्के की रोटी और सरसों का साग, साथ में ढेर सारा सफेद मक्खन। और हां, मीठे में गन्ने के रस की खीर (Rauh Di Kheer) भी है।"
चिंटू और पिंकी ने भरपेट खाना खाया। ठंड अब भी थी, लेकिन अलाव की गर्मी और परिवार के प्यार ने उसे गायब कर दिया था।
कहानी से सीख (Moral of the Story)
प्यारे बच्चों, दादाजी की इस कहानी से हमें तीन बड़ी बातें सीखने को मिलती हैं:
परोपकार (Helping Others): दुल्ला भट्टी की तरह हमें भी हमेशा जरूरतमंदों की मदद करनी चाहिए। असली हीरो वही है जो दूसरों के काम आए।
कृतज्ञता (Gratitude): हमें जो भोजन मिलता है, उसके लिए प्रकृति (सूरज, आग, धरती) का शुक्रिया अदा करना चाहिए।
एकता (Unity): त्योहार अकेले मनाने के लिए नहीं होते। जब सब मिल-जुलकर आग के पास बैठते हैं, तभी असली खुशी मिलती है।
तो अगली बार जब आप लोहड़ी की आग में मूंगफली डालें, तो दुल्ला भट्टी की बहादुरी को जरूर याद करें।
आप सभी को लोहड़ी की लख-लख बधाइयां!
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