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अध्यापक का भी अध्यापक: प्रेरक कहानी :- महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव में, जहाँ हवा में किताबों की स्याही और बच्चों की हँसी की खुशबू बिखरी रहती थी, एक पुराना स्कूल था। इस स्कूल में education का माहौल इतना जीवंत था कि बच्चे सुबह-सुबह अपनी स्लेट और चाक लेकर उत्साह से स्कूल की ओर दौड़ पड़ते। लेकिन उन दिनों स्कूलों में teachers’ authority का एक अलग ही रुतबा हुआ करता था। अध्यापक का एक इशारा, और सारा कक्षा-कक्ष चुप। उनकी हर बात को बच्चे wisdom का खजाना मानते।
इसी स्कूल में एक अध्यापक थे, पंडित रघुनाथ शास्त्री। शास्त्री जी गणित के मास्टर थे और उनकी teaching style इतनी प्रभावशाली थी कि बच्चे उनके हर सवाल को ध्यान से सुनते। एक दिन, शास्त्री जी कक्षा में mathematics problem को बोर्ड पर समझा रहे थे। सवाल था जटिल—कुछ भिन्नों और समीकरणों का मिश्रण। बच्चे बोर्ड की ओर टकटकी लगाए देख रहे थे, उनकी आँखों में curiosity और सीखने की ललक साफ झलक रही थी। शास्त्री जी ने बोर्ड पर चाक से लंबी-लंबी रेखाएँ खींचीं, संख्याएँ लिखीं, और सवाल को आसान बनाने की कोशिश की।
शास्त्री जी की उलझन
लेकिन उस दिन कुछ अजीब हुआ। सवाल को समझाते-समझाते शास्त्री जी अचानक रुक गए। उनकी भौंहें सिकुड़ गईं, और चाक उनके हाथ में थम सा गया। दरअसल, सवाल का अगला कदम उन्हें याद नहीं आ रहा था। यह पहली बार था जब शास्त्री जी, जिन्हें बच्चे knowledge guru मानते थे, किसी सवाल में उलझ गए। अपनी भूल को छिपाने के लिए उन्होंने बोर्ड पर कुछ और रेखाएँ खींचीं, फिर डस्टर से मिटाया। फिर लिखा, और फिर मिटाया। कक्षा में सन्नाटा था, लेकिन बच्चों की नजरें अब शास्त्री जी के चेहरे पर थीं। वे समझ गए कि उनके respected teacher किसी problem-solving dilemma में फँस गए हैं।
शास्त्री जी को इस तरह परेशान देखकर कक्षा में एक अजीब सी बेचैनी फैल गई। बच्चे एक-दूसरे को देख रहे थे, लेकिन कोई कुछ बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। शास्त्री जी नहीं चाहते थे कि बच्चों को लगे कि उनका अध्यापक किसी सवाल में कमजोर पड़ गया। वे बार-बार बोर्ड पर कुछ लिखते, मिटाते, और अपने माथे पर आए पसीने को पोंछते।
साहसी बालक का कदम
तभी, कक्षा के आखिरी कोने में बैठा एक बालक, जिसकी आँखों में fearless spirit और चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक थी, खड़ा हुआ। उसका नाम था गंगाधर। छोटी सी उम्र, मगर बुद्धि ऐसी कि बड़े-बड़े विद्वान भी हैरान रह जाएँ। गंगाधर ने साहस जुटाया और धीरे-धीरे बोर्ड की ओर बढ़ा। कक्षा में सन्नाटा और गहरा हो गया। शास्त्री जी ने उसे देखा, लेकिन कुछ बोले नहीं। गंगाधर ने डस्टर उठाया, बोर्ड को साफ किया, और चाक लेकर सवाल को हल करना शुरू किया। उसकी उँगलियाँ बोर्ड पर नाच रही थीं—संख्याएँ, चिह्न, और समीकरण एक के बाद एक उभर रहे थे। कुछ ही पलों में, उसने सवाल को पूरी तरह हल कर दिया।
फिर, बिना कुछ कहे, वह चुपचाप अपनी जगह पर लौट गया और बैठ गया। कक्षा में पहले तो खामोशी छाई, और फिर अचानक तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी। बच्चे हैरान थे, और शास्त्री जी के चेहरे पर एक मिश्रित भाव था—आश्चर्य, शर्मिंदगी, और गर्व। उन्होंने गंगाधर को पास बुलाया और कहा, “बेटा, तुमने आज न सिर्फ सवाल हल किया, बल्कि मुझे भी lesson of humility सिखाया। तुमने साबित कर दिया कि सच्चा student वही है, जो अपने अध्यापक को भी सिखा सके।”
गंगाधर की बुद्धिमता का चर्चा
यह घटना स्कूल में आग की तरह फैल गई। गाँव के लोग गंगाधर की intelligence और courage की चर्चा करने लगे। कुछ लोग कहते, “ये बालक तो future leader बनेगा!” तो कुछ कहते, “इसकी बुद्धि तो inspiration है!” शास्त्री जी ने भी इस घटना को अपने दिल में बिठा लिया। उन्होंने गंगाधर को और प्रोत्साहित किया, उसे कठिन से कठिन सवाल दिए, और उसकी problem-solving skills को और निखारा।
लेकिन गंगाधर की कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। वह स्कूल में न सिर्फ गणित में अव्वल था, बल्कि इतिहास, साहित्य, और नीति-शास्त्र में भी उसकी रुचि थी। वह अक्सर अपने दोस्तों को कहानियाँ सुनाता, जिनमें freedom और justice की बातें होती थीं। उसकी बातों में एक जुनून था, जो धीरे-धीरे पूरे गाँव में फैलने लगा।
गंगाधर से बाल गंगाधर तिलक तक
समय बीता, और गंगाधर बड़ा हुआ। उसने अपनी पढ़ाई पूरी की और देश की आजादी की लड़ाई में कूद पड़ा। वही बालक, जो कभी अपने अध्यापक को सवाल हल करना सिखा गया था, अब पूरे देश को swaraj का पाठ पढ़ाने लगा। जी हाँ, वह बालक कोई और नहीं, बल्कि Bal Gangadhar Tilak थे—वह शख्स जिसने “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है” का नारा दिया और भारत की आजादी की लड़ाई में गर्मदल के नेता के रूप में अहम भूमिका निभाई।
तिलक की बुद्धिमता और साहस की नींव उसी स्कूल की कक्षा में पड़ी थी, जहाँ उन्होंने न सिर्फ गणित के सवाल हल किए, बल्कि यह भी सिखाया कि true learning में कोई उम्र या पद का बंधन नहीं होता। उनकी यह कहानी गाँव-गाँव में सुनाई गई, और लोग बच्चों को प्रेरित करने के लिए कहते, “देखो, तिलक जैसे बनो—जो न सिर्फ सीखे, बल्कि अपने teachers को भी सिखाए!”
कहानी का विस्तार: तिलक की स्कूल यात्रा
स्कूल में तिलक की एक और घटना प्रसिद्ध थी। एक बार शास्त्री जी ने कक्षा में एक बहस आयोजित की, जिसमें सवाल था, “Knowledge ज्यादा जरूरी है या courage?” तिलक ने दोनों को मिलाकर जवाब दिया, “ज्ञान बिना साहस अधूरा है, और साहस बिना ज्ञान खतरनाक।” उनकी इस बात ने न सिर्फ शास्त्री जी को प्रभावित किया, बल्कि स्कूल के अन्य अध्यापकों ने भी तिलक को young philosopher कहना शुरू कर दिया।
तिलक अपने दोस्तों के साथ मिलकर स्कूल में एक छोटा सा study group बनाया करते थे, जहाँ वे नई-नई किताबें पढ़ते और देश-दुनिया के हालात पर चर्चा करते। एक बार, जब गाँव में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ छोटा सा विरोध हुआ, तिलक ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर एक नाटक लिखा, जिसमें उन्होंने freedom struggle का संदेश दिया। यह नाटक इतना प्रभावशाली था कि गाँव के बड़े-बुजुर्ग भी इसे देखकर तालियाँ बजाने लगे।
कहानी की सीख
इस कहानी से हमें life lesson मिलता है कि सच्चा ज्ञान वही है, जो विनम्रता और साहस के साथ आता है। तिलक ने न सिर्फ अपने अध्यापक को सिखाया, बल्कि पूरे देश को self-respect और independence का पाठ पढ़ाया। यह कहानी हमें प्रेरित करती है कि चाहे हम कितने ही छोटे क्यों न हों, अगर हमारे पास confidence और knowledge है, तो हम किसी को भी कुछ नया सिखा सकते हैं—यहाँ तक कि अपने teachers को भी।
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