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प्रेरक कहानी : ईर्ष्या का बदला :- राजा देवराज के राज्य में जयपाल नामक एक व्यक्ति रहा करता था। वह एक सफल मूर्तिकार था। उसकी कला से प्रसन्न होकर राजा देवराज ने उसे अपने राज कारीगरों में शामिल कर लिया था। एक बार देवराज ने जयपाल से ऐसी मूर्ति बनाने को कहा जो सर्वश्रेष्ठ हो।
राजा का आदेश पाकर जयपाल मूर्ति बनाने में जुट गया। कई दिनों की मेहनत के बाद उसने एक बहुत ही सुन्दर मूर्ति बनायी। मूर्ति किसी देवी की थी। देखने में लगता मानो कोई जीवित स्त्री ही देवी का रूप धारण कर बैठी है। सभी दरबारी मूर्ति की सजीवता से प्रभावित हुए बिना न रह सके।
जयपाल की कला से प्रसन्न होकर राजा ने उसे दो ऊँट सोने के सिक्के और कई एकड़ खेत पुरस्कार स्वरूप दिया। इतना इनाम कभी उसको नहीं मिला था। राज दरबार के अन्य मूर्तिकार इस घटना के बाद से जयपाल से ईर्ष्या करने लगे। वे ईष्र्या वश जयपाल की कुशलता पर संदेह करते और उसकी बनायी मूर्ति में कोई न कोई गलती निकालते।
बात राजा के कानों तक जा पहुंची राजा ने एक दिन सभी मूर्तिकारों को बुलवाया और मूर्ति की त्रुटियों को जानना चाहा। मूर्तिकारों ने मौके का फायदा उठाया और मूर्ति की त्रुटियों का बखान करने लगे। कोई कहता मूर्ति की नाक ठीक नहीं है तो कोई कहता कि मूर्ति का कुण्डल ठीक नहीं बना है।
कोई मूर्ति की वस्त्र सज्जा ठीक नहीं है कहते राजा देवराज जयपाल की कला से पूर्णतः सन्तुष्ट था किन्तु अन्य मूर्तिकारों को अप्रसन्न भी नहीं करना चाहता था। उसने जय पाल से मूर्तिकारों द्वारा बताई गई त्रुटियों को दूर करने को कहा।
जयपाल जानता था कि यह सब मूर्तिकारों की ईष्र्या का परिणाम है। लेकिन वह चुप रहा। उसने राजा से मूर्ति को सुधारने के लिए पंद्रह दिन का समय तथा एक बड़े कमरे की व्यवस्था करने को कहा जिसमें बह बिना बंधन के मुर्ति को सुधारने का कार्य कर सके। उसने राजा से यह भी कहा कि जब तक वह मूर्ति को पूरी तरह सुधार न ले कोई उसके कमरे में प्रवेश न करे।
राजा देवराज ने उसकी शर्ते मान ली और उसके लिए एक बड़े कमरे की व्यवस्था कर दी। जयपाल प्रतिदिन सुबह ही अपने कमरे में घुस जाता और रात को काफी देर बाद निकलता। पूरे समय वह छेनी हथौड़ी से खट् खट् करता रहता। अन्य मूर्तिकार आते जाते खट् खट् की आवाज सुनकर अनुमान लगाते कि जयपाल मूर्ति को सुधार रहा है।
ठीक पंद्रहवें दिन जयपाल ने मूर्ति को श्रमिकों की सहायता से बाहर निकाला और राजा तथा राज मूर्तिकारों को देखने के लिए आमंत्रित किया। मूर्तिकारों ने जब मूर्ति को देखा तो चकित रह गए। उन्होंने सोचा था कि मूर्ति को सुधारने के प्रयास में जयपाल उसे और खराब कर देगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अब उनके मूर्ति की प्रशंसा करने के सिवाय कोई चारा न था।
राजा देवराज भी मूर्ति को देखने के लिए पहुंचा था। जब सारे मूर्तिकार चले गए तो राजा ने मूर्ति को ध्यान से देखते हुए कहा, जयपाल तुम पंद्रह दिन तक मूर्ति को सुधारने में लगे रहे किन्तु मुझे मूर्ति में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई दिया।
जैसे यह पहले थी वैसी ही अब भी है। क्या तुमने वास्तव में इसमें कुछ परिवर्तन किया है।
नहीं महाराज इस मूर्ति में मैंने जरा भी सुधार नहीं किया है। क्योंकि इसमें सुधार की आवश्यकता ही नहीं थी। राज मूर्तिकार रूष्ट न हो इसलिए मैं बिना कारण ही कमरे में खट् खट् करता रहा।’ जयपाल ने हाथ जोड़ कर कहा।
जयपाल का उत्तर सुनकर राजा देवराज बहुत प्रभावित हुआ। उसने कहा, ‘सचमुच तुम जितने कुशल मूर्तिकार हो उतने ही सरल और शान्तिप्रिय भी। तुमने ईर्ष्या का बदला शान्ति से लिया। विपक्षी को कष्ट देने के स्थान पर तुमने स्वंय को पंद्रह दिन कैद में रखा। आज से मैं तुम्हें अपना मूर्तिकार नियुक्त करता हूँ।’