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घातक प्रतिशोध की कहानी हमारे मन के अँधेरे कोने को दर्शाती है, जहाँ अहंकार का छोटा-सा घाव भी एक बड़ी आग में बदल सकता है। यह कहानी हमें सिखाती है कि घमंड में लिया गया कोई भी फ़ैसला कैसे ख़ुद ही के विनाश का कारण बन जाता है।
पहला अध्याय: शीतल जलमहल का राजा वीरसेन
एक घने जंगल के बीचों-बीच एक गहरा और पुराना कुआँ था, जिसे वहाँ के मेंढक 'शीतल जलमहल' कहते थे। इस छोटे से राज्य का राजा था वीरसेन। वीरसेन की ख्याति एक अच्छे और न्यायप्रिय शासक के रूप में थी। लेकिन उसकी रगों में राजा का ख़ून था, और इस ख़ून में असहनीय अहंकार भी मिला हुआ था।
वीरसेन किसी भी कीमत पर अपनी आलोचना या विरोध सहन नहीं कर सकता था।
लेकिन हर राजा का एक आलोचक होता है। वीरसेन के दरबार में तारक नामक एक मेंढक था, जो तर्कशील और निडर था। एक बार, राजा ने अपनी सुरक्षा को और मज़बूत करने के लिए अनाप-शनाप ख़र्चों का ऐलान किया।
तारक ने भरी सभा में सिर झुकाकर कहा, "महाराज! हमारी प्रजा के पास खाने को पर्याप्त शैवाल (Algae) नहीं है, और हम सुरक्षा पर इतना ख़र्च कर रहे हैं? क्या यह न्याय है?"
तारक के इस प्रश्न को अन्य समर्थकों ने भी उठा लिया। पूरी सभा में विरोध की दबी-दबी फुसफुसाहटें तैरने लगीं। वीरसेन ने अपने जीवन में पहली बार इतना बड़ा सार्वजनिक अपमान महसूस किया।
क्रोध से उसकी आँखें लाल हो गईं। उसने मुट्ठी भींच ली और उस रात से ही उसके मन में प्रतिशोध की भावना जलने लगी।
वीरसेन ने अपने महल में ख़ुद से कहा, "ये साधारण जीव मेरी बुद्धिमानी पर सवाल उठाएंगे? इन्हें दंड देना होगा! पर अगर मैं सीधे सज़ा दूँगा, तो पूरी प्रजा विद्रोह कर देगी। मुझे एक ऐसी योजना बनानी होगी, जिसमें जनता मेरे ख़िलाफ़ एक शब्द न कह पाए।"
दूसरा अध्याय: सर्प द्रोण से घातक समझौता
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रात के घने अँधेरे में, जब सारा संसार शांत था, राजा वीरसेन चुपचाप जलमहल से बाहर निकला। उसे पता था कि पास के सूखे पीपल के पेड़ के पास द्रोण नामक एक बहुत बूढ़ा और धूर्त सर्प रहता था।
वीरसेन धीरे से बिल के पास पहुँचा और काँपती आवाज़ में पुकारा, "हे सर्पराज द्रोण! क्या मैं आपसे बात कर सकता हूँ?"
बिल से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। वीरसेन ने थोड़ा ज़ोर से कहा, "मैं मेंढकों का राजा वीरसेन हूँ और मैं आपकी शरण में आया हूँ!"
कुछ देर बाद, सर्प द्रोण धीरे से बाहर निकला। वह इतना बूढ़ा था कि उसकी त्वचा भी सूखी लग रही थी।
"मेंढक राजा?" द्रोण ने अपनी जीभ लपलपाते हुए संदेह से कहा, "तुम जानते हो कि तुम मेरे भोजन हो। क्या तुम अपनी मृत्यु को न्योता देने आए हो, या तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है?"
वीरसेन ने झुककर कहा, "सर्पराज! मैं आपसे मित्रता करने आया हूँ। हाँ, आप हमारे शत्रु हैं, पर इस समय मेरे अपने ही मेरे सबसे बड़े दुश्मन बन गए हैं। मेरे अपमान का बदला लेने के लिए, मैं आपको एक शाही भोज का प्रस्ताव देता हूँ।"
द्रोण की आँखें चमक उठीं। बुढ़ापे के कारण उसका शिकार मुश्किल हो गया था।
"बताओ, तुम्हारा घातक प्रतिशोध मुझे क्या दे सकता है?" द्रोण ने पूछा।
"आपको मेरे जलमहल में मेरे साथ चलना होगा। मैं वहाँ आपके आराम के लिए एक सूखी जगह का इंतज़ाम करूँगा। मैं रोज़ आपको एक मेंढक ला कर दूँगा, जिन्हें आप खाएँगे," वीरसेन ने अपनी योजना रखी। "बदले में, आपको एक वचन देना होगा कि आप मेरे वफ़ादार परिवार और मेरे चुनिंदा सहयोगियों को कभी नहीं खाएँगे।"
द्रोण ने मन में सोचा: आज तक किसी राजा ने ख़ुद अपने ही भोजन का इंतज़ाम नहीं किया। यह मूर्ख वीरसेन मेरे बुढ़ापे का सहारा बन गया है!
द्रोण ने कुटिलता से हँसते हुए कहा, "निश्चित रहो, मित्र वीरसेन! मैं तुम्हें वचन देता हूँ। जिसने मेरे लिए इतना बड़ा इंतज़ाम किया, उससे मुझे क्या भय हो सकता है? तुम मेरे मित्र हो। तुम्हारा प्रतिशोध मेरा पोषण बनेगा।"
तीसरा अध्याय: विनाश की गुप्त परियोजना
राजा वीरसेन, द्रोण को लेकर कुएँ में आया और उसे पानी की सतह से थोड़ी ऊँचाई पर एक पुरानी दरार में छिपा दिया।
अगले दिन, वीरसेन ने एक शाही घोषणा की। उसने एक 'गुप्त विकास परियोजना' का ढोंग रचा। उसने घोषणा की कि पास के एक बड़े तालाब में जाने के लिए उसने एक गुप्त और तंग सुरंग का पता लगाया है, लेकिन उस मार्ग की जाँच सिर्फ़ राज्य के सबसे प्रतिभाशाली और ऊर्जावान मेंढक ही कर सकते हैं।
वीरसेन ने कहा, "हम इस 'जाँच यात्रा' को तब तक जारी रखेंगे, जब तक हमारे सभी योग्य नागरिक सुरक्षित रूप से नए राज्य का मुआयना न कर लें।"
अगले दिन, वीरसेन सबसे पहले तारक के पास गया। उसने बड़े प्यार से कहा, "तारक! तुम हमारे सबसे बुद्धिमान सलाहकार हो। इस नई सुरंग की जाँच करने वाले दल का नेतृत्व तुम्हें ही करना होगा। यह तुम्हारे राज्य के प्रति समर्पण की परीक्षा है।"
भोला-भाला तारक सम्मान महसूस कर रहा था। वह वीरसेन के साथ चला। जैसे ही वे दरार के पास पहुँचे, वीरसेन ने उसे धक्का दे दिया।
द्रोण तो तैयार बैठा था। उसने तारक को फ़ौरन निगल लिया।
यह क्रम कई दिनों तक चलता रहा। वीरसेन रोज़ एक-एक विरोधी को 'जाँच दल' के बहाने द्रोण के पास भेजता रहा। हर मेंढक को ख़त्म होते देख, वीरसेन को एक पल के लिए ख़ुशी मिलती, लेकिन दूसरी पल में अकेलेपन का डर उसे सताने लगता।
चौथा अध्याय: अहंकार का अंतिम पतन
आख़िरकार, वीरसेन के सभी विरोधी, जो उसके अहंकार को चोट पहुँचाते थे, समाप्त हो गए। वह राहत की साँस लेने के लिए द्रोण के पास पहुँचा।
"सर्पराज!" वीरसेन ने कहा, "आज मेरा प्रतिशोध पूरा हो गया। मेरा जलमहल अब निष्कंटक है। आपने मेरा बहुत बड़ा उपकार किया है। कृपया अब यहाँ से चले जाएँ, क्योंकि अब मेरा परिवार और मेरा राज्य सुरक्षित रहना चाहिए।"
द्रोण ने एक लंबी अंगड़ाई ली। उसकी आँखें चमक रही थीं—वह पहले से कहीं ज़्यादा मोटा और ताक़तवर लग रहा था।
द्रोण ने कहा, "जाऊँ? कहाँ जाऊँ, मित्र वीरसेन? जिस घर में रोज़ दावत मिलती हो, उसे कौन मूर्ख छोड़ता है? तुमने मुझे जो भोजन दिया है, वह अब मेरी आदत बन गई है।"
वीरसेन गिड़गिड़ाया, "पर आपने वचन दिया था! मेरी रक्षा का! मेरे परिवार की सुरक्षा का!"
द्रोण ने भयानक ठहाका लगाते हुए कहा, "वचन? हा हा हा! मूर्ख राजा! जो व्यक्ति अपने छोटे-से अपमान के लिए, अपने ही लोगों का सामूहिक संहार करवा सकता है, वह कैसा मित्र? तुमने मेरे लिए भोजन का रास्ता खोला। अब मैं क्यूँ तुम्हारे कुटुंबियों को छोडूँ?"
"तुम एक विश्वासघाती हो! तुमने मेरे भरोसे को तोड़ा!" वीरसेन चिल्लाया।
द्रोण ने एक झटके में वीरसेन को अपने ज़बड़े में जकड़ लिया। "नहीं, राजा! तुमने ख़ुद को तोड़ा है। जिसने अपनों का भरोसा तोड़ा, उसका अंत ऐसा ही होता है!"
और अगले ही पल, राजा वीरसेन का अस्तित्व समाप्त हो गया। बदले की आग में जलकर वीरसेन ने सिर्फ अपने दुश्मनों को नहीं, बल्कि अपनी पूरी प्रजा, अपना परिवार और स्वयं अपने जीवन को भी भस्म कर दिया। सर्प द्रोण अब जलमहल का नया और एकमात्र स्वामी था।
कहानी का सारांश (Summary)
राजा वीरसेन ने अपने विरोधियों से प्रतिशोध लेने के लिए अपने अहंकार को संतुष्ट करने हेतु सर्प द्रोण से एक घातक समझौता किया। उसने अपने शत्रुओं को ख़त्म करने के लिए उन्हें धोखे से द्रोण के मुँह में धकेल दिया। जब राजा का बदला पूरा हुआ और उसने सर्प को जाने को कहा, तो द्रोण ने राजा की मूर्खता का मज़ाक उड़ाया। द्रोण ने राजा को विश्वासघाती बताते हुए उसके वचन को तोड़ा और अंत में वीरसेन को भी अपना निवाला बना लिया। यह कहानी दिखाती है कि घातक प्रतिशोध की कहानी का अंत हमेशा ख़ुद बदला लेने वाले के विनाश के साथ ही होता है।
इस कहानी से क्या सीख मिलती है (Moral Lesson)
प्रतिशोध की भावना एक आत्मघाती हथियार है। यह एक ऐसी अग्नि है जो किसी और को जलाए या न जलाए, लेकिन आपके विवेक और मानसिक शांति को सबसे पहले जला देती है।
अहंकार से बचें: छोटा-सा अहंकार भी बड़े विनाश का कारण बन सकता है। आलोचना को सुनें और समझें, न कि उसे प्रतिशोध का आधार बनाएँ।
शत्रु का उपयोग आत्म-विनाश है: तात्कालिक लाभ के लिए अपने नैसर्गिक शत्रु से सहयोग लेना हमेशा विश्वासघात और आत्म-विनाश में बदल जाता है।
क्षमा सबसे बड़ा बल है: दूसरों को उनके कर्मों का फल देने का काम नियति (Destiny) पर छोड़ दें। क्षमा करना सबसे बड़ा बल है, जबकि बदले की चाहत सबसे बड़ी कमज़ोरी।
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