सीताबाड़ी के जंगल की कहानी: जहां जानवरों का राज था

 शहर से दूर सीताबाड़ी के जंगल में शेर, चीते, भालू, बंदर, खरगोश, सियार, हिरण और हाथी सभी निश्चिंत भाव से रहते थे। वे सब वहाँ स्वतंत्रता से घूमते-फिरते थे।

By Lotpot
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Sitabari
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सीताबाड़ी के जंगल की कहानी: जहां जानवरों का राज था- शहर से दूर सीताबाड़ी के जंगल में शेर, चीते, भालू, बंदर, खरगोश, सियार, हिरण और हाथी सभी निश्चिंत भाव से रहते थे। वे सब वहाँ स्वतंत्रता से घूमते-फिरते थे। सीताबाड़ी के जानवर अपने सबसे बड़े शत्रु मनुष्य को मानते थे, इसलिए कोई इंसान उधर आता तो वे भयभीत हो जाते। हालाँकि शहर से दूर होने के बावजूद, सीताबाड़ी में हमेशा शोर-गुल रहता था। कभी पशुओं के बच्चों के बीच झगड़े होते, तो कभी उन्हें सुलझाने के चक्कर में मादा पशु भी आपस में लड़ पड़तीं। अक्सर नर पशुओं को बीच-बचाव करना पड़ता।

हालाँकि, सभी जानवर इस माहौल के आदी थे, पर हरिया बंदर को यह वातावरण रास नहीं आता था। ऐसा नहीं था कि हरिया के लिए यह जंगल नया था—उसका जन्म तो यहीं हुआ था—लेकिन बचपन से ही वह शांत स्वभाव का था। उसे अधिक हंगामा या शोर पसंद नहीं था। वह घंटों अकेला बैठा रहता और क्या सोचता रहता, कोई नहीं जानता था। कई बार उसने जंगल के जानवरों को शांत रहने के लिए समझाने की कोशिश भी की, लेकिन उसका परिणाम यह होता कि सब उसका मजाक उड़ाते हुए कहते—

"कहिए, संन्यासी जी! हमारे लिए क्या आज्ञा है? हम तो निपट मूर्ख हैं, शायद आपकी संगति में कुछ सीख जाएँ!"

हरिया बंदर मन ही मन सबकुछ सहन करता रहता, पर उसकी आँखों में एक अलग ही चिंगारी थी.

हरिया बंदर मन ही मन सब कुछ समझता था, परंतु दुखी होने के अलावा वह कुछ कर नहीं पाता था। एक दिन वह बहुत परेशान होकर अपने मित्र मंगू बंदर के पास पहुँचा और बोला, "मित्र! बहुत सोच-विचार के बाद मैंने एक निर्णय लिया है।"

उसके चेहरे की गंभीरता देखकर मंगू ने वातावरण को हल्का करने के लिए कहा, "क्या किसी शांति अभियान पर निकल रहे हो?"

"नहीं, शांति अभियान पर तो नहीं, हाँ... शांति की खोज में अवश्य निकल रहा हूँ। मेरा मन इस जंगल के शोर-गुल में बिल्कुल नहीं लगता," हरिया ने उत्तर दिया।

मंगू उसे समझाने लगा, "मित्र! यह मत भूलो कि यह जंगल तुम्हारी जन्मभूमि है। अपनी जन्मभूमि को अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न करो। भला, अपनी मातृभूमि छोड़कर कोई सुखी रहा है?"

किंतु मंगू के समझाने का हरिया पर कोई असर नहीं हुआ। एक दिन वह बिना किसी को बताए शांति की खोज में निकल पड़ा। जब कई घंटों तक हरिया कहीं नजर नहीं आया, तो सभी जानवर चिंतित हो गए। मंगू तुरंत उसकी तलाश में निकल पड़ा।

जंगल की सीमा पर पहुँचते ही उसे अप्पू हाथी दिखाई दिया। मंगू ने उससे पूछा, "भैया अप्पू! क्या तुमने हरिया बंदर को देखा है?"

"हाँ! हाँ! अभी थोड़ी देर पहले मैंने उसे शहर की ओर जाते देखा था," अप्पू ने अपनी सूँड हिलाते हुए कहा।

"क्या कहा? शहर की ओर!" मंगू घबराते हुए बोला।

अप्पू ने उसकी घबराहट का कारण पूछा, तो मंगू बोला, "तुम्हें नहीं मालूम अप्पू भैया! ये मनुष्य बहुत दुष्ट होते हैं हैं बन्दर और भालुओं को पकड़कर रस्सी से बांध देते हैं और फिर उन्हें मनचाहे ढंग से नचा कुदाकर लोगों का मनोरंजन करते हैं। मुझे डर है कि कहीं हरिया को भी कोई मदारी पकड़कर उस पर अत्याचार न करने लगे।"

अप्पू हाथी और मंगू बंदर हरिया की खोज में शहर की ओर चल पड़े। लोगों से छिपते-छिपाते वे दोनों अपने साथी के लिए दो दिन तक भटकते रहे, परंतु हरिया का कुछ पता नहीं चल सका। अंत में थक-हारकर वे निराश हो गए और वापस जंगल लौटने लगे।

जब वे शहर की बाहरी बस्ती से कुछ दूर ही थे, तभी उन्हें हरिया की आवाज सुनाई दी। "सुनो अप्पू, यह तो हरिया की आवाज है न?" मंगू ने पूछा।

"हाँ, लगता तो उसी की आवाज है, पर वह दिख कहीं नहीं रहा," अप्पू ने सहमति जताते हुए कहा। दोनों पीछे मुड़कर बस्ती की ओर ध्यान से देखने लगे।

"वह रहा हरिया!" मंगू ने दूर एक मकान की छत पर जंजीरों से बंधे हरिया को देख लिया।

"अरे हाँ! बेचारे को कितनी बुरी तरह बाँध रखा है," मंगू ने दुखी स्वर में कहा।

"चलो, हम उसे छुड़ा लाते हैं," अप्पू ने उत्साह से कहा।

"तुम्हारी अक्ल भी तुम्हारे शरीर की तरह मोटी है! ऐसे ही जाएंगे तो छुड़ाना तो दूर, खुद भी पकड़े जाएंगे। अभी अंधेरा होने दो, फिर चलेंगे," मंगू ने समझदारी से कहा।

अप्पू को मंगू की यह बात ठीक लगी। इसलिए दोनों वहीं बैठकर शाम होने का इंतजार करने लगे। सूरज ढलने पर जब अंधेरा हो गया, तो मंगू बंदर और अप्पू हाथी उस मकान की ओर बढ़ चले जहाँ हरिया को बाँधकर रखा गया था।

मकान के पास पहुँचकर मंगू अप्पू की पीठ पर चढ़ गया और एक ही छलाँग में छत पर जा पहुँचा। हरिया को देखते ही जैसे उसके शरीर में जान आ गई। मंगू ने मुश्किल से हरिया की जंजीर खोली, फिर दोनों बंदर कूदकर अप्पू की पीठ पर सवार हो गए। अप्पू तो पहले से ही तैयार था। वह उन्हें लेकर पूरी ताकत से जंगल की ओर दौड़ पड़ा।

जब बस्ती काफी पीछे छूट गई, तो हरिया और मंगू अप्पू की पीठ से उतरे। हरिया बोला, "मंगू भैया, तुम सच कहते थे। अपनी भूमि अपनी होती है, और अपने साथी चाहे जैसे भी हों, वे अपने होते हैं। शांति की खोज बाहर जाकर नहीं, बल्कि अपनों के बीच रहकर करनी चाहिए। अब मैं जंगल में ही रहूँगा और अपने साथियों को भी सुधारने की कोशिश करूँगा।"

मंगू ने हँसते हुए कहा, "अच्छा संन्यासी जी, सुधार तो बाद में करना। पहले जल्दी से जंगल पहुँचो, कहीं फिर से पकड़े न जाएँ!"

अप्पू हाथी भी खिलखिलाकर हँस पड़ा। हरिया के चेहरे पर भी मुस्कान खिल उठी।

सीख:
"सच्ची शांति और सुख हमें अपनों के बीच ही मिलता है। बाहर भटकने से बेहतर है कि हम अपने घर-परिवार और समाज को ही बेहतर बनाने का प्रयास करें। हरिया की तरह हमें भी यह समझना चाहिए कि हमारी जड़ें जहाँ हैं, वहीं हमारा सच्चा सुख छिपा है। साथ ही, अगर हमें कुछ बदलाव चाहिए, तो उसे भागकर नहीं, बल्कि मिल-जुलकर सुधारने का प्रयास करना चाहिए।"

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