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अक्सर हम उन लोगों को 'अंधा' कहते हैं जिनकी आँखों की रोशनी नहीं होती, लेकिन असली अंधापन वह है जब इंसान सब कुछ देख कर भी नासमझ बना रहे। आज की कहानी Ankhon wale Andhe इसी बात पर आधारित है। यह कहानी हमें सिखाती है कि केवल आँखों का होना काफी नहीं है, उनका सही इस्तेमाल करना और दूसरों के प्रति जागरूक रहना ही असली दृष्टि है।
कहानी: दीया और बूढ़ा बाबा (The Story)
बहुत समय पहले की बात है, एक छोटे से गांव में एक बूढ़े बाबा रहते थे। वह जन्म से अंधे थे। उन्हें दुनिया का कोई रंग नहीं दिखता था, लेकिन उनका मन बहुत साफ और दिमाग बहुत तेज था। वह हमेशा अपनी लाठी के सहारे गांव में घूमते थे और लोग उनकी समझदारी की बहुत इज्जत करते थे।
अमावस की काली रात
एक रात गांव में बहुत अंधेरा था, क्योंकि वह अमावस की रात थी। आसमान में न तो चांद था और न ही तारे। हाथ को हाथ दिखाई नहीं दे रहा था। ऐसे में, वह अंधे बाबा अपनी झोपड़ी से बाहर निकले। उनके एक हाथ में लकड़ी की लाठी थी और दूसरे हाथ में एक जलता हुआ लालटेन (दीया) था।
वह धीरे-धीरे लाठी ठक-ठक करते हुए रास्ते पर चल रहे थे।
नौजवानों का मजाक
तभी सामने से गांव के तीन-चार नौजवान लड़के आ रहे थे। उन्होंने देखा कि एक बूढ़ा आदमी लालटेन लेकर आ रहा है। जब वे पास आए, तो उन्होंने पहचाना कि अरे! ये तो वही अंधे बाबा हैं।
लड़कों को यह देखकर बहुत हंसी आई। उनमें से एक ने तंज कसते हुए कहा, "देखो दोस्तों! ये बाबा तो जन्म से अंधे हैं, इन्हें दिन और रात का भी फर्क नहीं पता, फिर भी हाथ में लालटेन लेकर घूम रहे हैं। क्या मूर्खता है!"
दूसरे लड़के ने जोर से हंसते हुए बाबा से पूछा, "अरे बाबा! आपकी आंखों में तो रोशनी है नहीं, तो यह लालटेन किसके लिए जला रखा है? आपके लिए तो उजाला और अंधेरा सब बराबर है। तेल क्यों बर्बाद कर रहे हो?"
बाबा का तार्किक जवाब (The Logic)
बूढ़े बाबा रुके। उनके चेहरे पर कोई गुस्सा नहीं था। उन्होंने बहुत शांत स्वर में जवाब दिया, "बेटा, तुम सही कह रहे हो। मैं अंधा हूं और यह दीया मुझे रास्ता नहीं दिखा रहा। लेकिन मैंने यह दीया अपने लिए नहीं, बल्कि तुम जैसे 'आँखों वाले लोगों' के लिए जलाया है।"
लड़के हैरान रह गए। उन्होंने पूछा, "हमारे लिए? इसका क्या मतलब?"
बाबा ने समझाया, "देखो, आज रात बहुत अंधेरा है। मैं तो अंधा हूं, मुझे आदत है, मैं बिना रोशनी के भी लाठी के सहारे चल लूंगा। लेकिन तुम लोगों के पास आँखें हैं, फिर भी इस घने अंधेरे में तुम मुझे देख नहीं पाते और मुझसे टकरा जाते। शायद तुम गिर जाते या मेरा दीया बुझ जाता। इसलिए मैंने यह रोशनी की है ताकि तुम मुझे देख सको और हम दोनों टकराने से बच जाएं।"
असली अंधा कौन?
यह सुनकर लड़कों का सिर शर्म से झुक गया। उन्हें समझ आ गया कि बाबा ने उनके भले के लिए ही वह रोशनी पकड़ रखी थी, और वे बिना सोचे-समझे उनका मजाक उड़ा रहे थे। रोशनी उनके हाथ में नहीं, बल्कि बाबा की सोच में थी। और आँखें होते हुए भी वे लड़के उस वक्त आँखों वाले अंधे बने हुए थे क्योंकि उन्होंने बिना सोचे-समझे व्यवहार किया था।
कहानी से सीख (Moral of the Story)
"असली अंधापन आँखों की रोशनी का जाना नहीं है, बल्कि अहंकार और नासमझी है। अगर हम देखकर भी दूसरों की भलाई या स्थिति को नहीं समझते, तो हम आँखों वाले अंधे हैं।"
