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हम सभी ने बचपन से एक बहुत पुरानी कहावत सुनी है—"सौ सुनार की, एक लोहार की" (Sau Sunar Ki Ek Lohar Ki)। अक्सर इसका इस्तेमाल तब किया जाता है जब कोई व्यक्ति किसी काम को बार-बार करने की कोशिश करता है लेकिन असफल रहता है, और दूसरा व्यक्ति आकर एक ही बार में उसे हल कर देता है।
लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि यह कहावत बनी कैसे? क्या यह सिर्फ ताकत की बात है या इसके पीछे कोई विज्ञान और तर्क (Logic) भी है? आज हम एक ऐसी कहानी पढ़ेंगे जो न केवल आपको इस मुहावरे का मतलब समझाएगी बल्कि यह भी बताएगी कि जीवन में 'फोकस' और 'सही समय पर सही वार' करना क्यों जरूरी है।
यह कहानी है रामपुर नाम के एक पुराने और खुशहाल गांव की, जहां दो पड़ोसी रहते थे। उनकी तकरार और एक शाही चुनौती ने इस कहावत को जन्म दिया।
सोने की चमक और लोहे की धमक
रामपुर गांव अपनी कारीगरी के लिए मशहूर था। गांव के मुख्य बाजार में आमने-सामने दो दुकानें थीं। एक दुकान थी दीनानाथ की, जो एक सुनार (Goldsmith) था, और दूसरी दुकान थी बलबीर की, जो एक लोहार (Blacksmith) था।
दीनानाथ का काम बहुत बारीक था। वह सोने के जेवर बनाता, तार जोड़ता और दिन भर अपनी छोटी सी हथौड़ी से टुक-टुक-टुक करता रहता। उसकी दुकान से हमेशा धीमी-धीमी खटपट की आवाज आती रहती थी। दीनानाथ को अपनी कला पर बहुत घमंड था। वह अक्सर कहता, "देखो, मैं दुनिया की सबसे कीमती धातु को आकार देता हूँ। मेरा काम नजाकत का है, शाही लोगों का है।"
दूसरी तरफ बलबीर था। विशाल शरीर, काले हाथ और माथे पर पसीना। उसकी भट्टी हमेशा दहकती रहती थी। वह लोहे के बड़े-बड़े औजार, हल और पहिए बनाता था। जब वह अपने भारी घन (Sledgehammer) को लोहे पर मारता, तो धड़ाम की आवाज से पूरी धरती कांप उठती थी।
दीनानाथ का अहंकार
एक दिन दोपहर के समय दीनानाथ अपनी दुकान के बाहर बैठा चाय पी रहा था। उसने सामने बलबीर को पसीना बहाते देखा तो ताना मारा, "अरे बलबीर भाई! तुम भी क्या दिन भर काले-कलूटों की तरह लोहे से जूझते रहते हो? और यह क्या शोर मचा रखा है? मेरी टुक-टुक में तो संगीत है, लेकिन तुम्हारी धड़ाम से तो कान के पर्दे फट जाते हैं। इसमें कोई कला नहीं है, बस जानवरों वाली ताकत है।"
बलबीर शांत स्वभाव का था। उसने मुस्कुराकर जवाब दिया, "दीनानाथ भाई, हर धातु का अपना स्वभाव होता है। सोने को मनाने के लिए प्यार से पुचकारना पड़ता है (हल्की चोट), लेकिन लोहा जिद्दी होता है। उसे सुधारने के लिए एक ठोस फैसले की जरूरत होती है। मेरी एक चोट में जो ताकत है, वो तुम्हारी सौ चोटों में नहीं।"
दीनानाथ हंस पड़ा। "हवा में बातें मत करो बलबीर! ताकत नहीं, हुनर बड़ा होता है।"
यह बहस उस दिन तो खत्म हो गई, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। यह बात राजा तक पहुंचने वाली थी।
राजा का अजीबोगरीब संदूक
कुछ दिनों बाद, रामपुर के राजा विजय सिंह के महल में खुदाई के दौरान एक बहुत पुराना संदूक (तिजोरी) मिला। यह संदूक सदियों पुराना लग रहा था और एक अजीब काली धातु से बना था। संदूक पर एक बड़ा और जटिल ताला लगा था जो पूरी तरह से जंग खा चुका था (Rusted)।
राजा के मंत्रियों ने चाबियां बनवाईं, हथौड़े चलवाए, लेकिन ताला टस से मस न हुआ। राजा को लगा कि शायद इसके अंदर खजाना हो सकता है, इसलिए इसे तोड़े बिना खोलना जरूरी था।
राजा ने मुनादी पिटवाई: "जो भी कारीगर इस संदूक के ताले को बिना संदूक तोड़े खोल देगा या ताले को काट देगा, उसे मुंह मांगा इनाम मिलेगा।"
पूरे राज्य के कारीगर आए, लेकिन नाकाम रहे। अंत में बात रामपुर के दो सबसे मशहूर कारीगरों पर आ रुकी—दीनानाथ और बलबीर।
राजदरबार में चुनौती
अगले दिन दरबार सजा। बीच में वह भारी-भरकम संदूक रखा गया। राजा विजय सिंह ने दीनानाथ और बलबीर दोनों को बुलाया।
राजा ने कहा, "तुम दोनों इस गांव के सर्वश्रेष्ठ कारीगर हो। दीनानाथ, तुम कहते हो कि तुम्हारा हुनर सबसे बारीक है। और बलबीर, लोग तुम्हारी ताकत की मिसाल देते हैं। आज फैसला हो जाएगा। पहले मौका दीनानाथ को दिया जाता है।"
सौ सुनार की (दीनानाथ की कोशिश)
दीनानाथ अपने औजारों का थैला लेकर आगे बढ़ा। उसने संदूक को चारों तरफ से देखा। ताला बहुत पुराना और जंग लगा हुआ था। दीनानाथ ने सोचा, "ताकत लगाऊंगा तो मेरी उंगलियां दुख जाएंगी, मैं अपनी तकनीक इस्तेमाल करूंगा।"
उसने अपनी छोटी छेनी और छोटी हथौड़ी निकाली। वह ताले के जोड़ पर वार करने लगा।
टुक... टुक... टुक...
पूरे दरबार में बस यही आवाज गूंज रही थी। दीनानाथ ताले के ऊपर जमी जंग को खुरच रहा था। वह ताले के हुक पर बार-बार चोट मार रहा था। उसने 10 बार मारा, 20 बार मारा, 50 बार मारा।
पसीने से उसका बुरा हाल हो गया। वह कभी ताले के दाएं मारता, कभी बाएं। उसकी छोटी हथौड़ी की चोट से ऊपर की पपड़ी तो झड़ गई, लेकिन ताले का मुख्य हिस्सा अपनी जगह से हिला तक नहीं।
दरबारी ऊबने लगे। राजा भी जम्हाई लेने लगे।
दीनानाथ ने लगभग सौ बार से ज्यादा चोट मारी होगी। ताले पर अनगिनत निशान पड़ गए थे, वह थोड़ा चमकने भी लगा था क्योंकि जंग हट गई थी, लेकिन वह टूटा नहीं।
दीनानाथ थक कर बैठ गया। उसने हांफते हुए कहा, "महाराज! यह ताला नहीं, शाप है। यह किसी धातु से नहीं, बल्कि जादू से बंद है। मेरी इतनी चोटों के बाद तो पत्थर भी टूट जाता, लेकिन यह नहीं टूटा। इसे कोई नहीं खोल सकता।"
एक लोहार की (बलबीर का प्रहार)
अब बारी बलबीर की थी। बलबीर खाली हाथ खड़ा था। उसका भारी घन (Hammer) उसके कंधे पर था। वह धीरे-धीरे संदूक के पास गया। उसने दीनानाथ की तरह तुरंत हथौड़ा चलाना शुरू नहीं किया।
सबसे पहले, उसने ताले को गौर से देखा। उसने देखा कि दीनानाथ की सौ चोटों ने ताले की बाहरी परत को कमजोर कर दिया है, लेकिन ताले की 'जान' (Main Mechanism) उसके बीचों-बीच स्थित एक मोटी कील (Pin) में थी जो जंग के कारण लोहे के साथ एक हो गई थी।
बलबीर ने समझा कि अगर उस मुख्य बिंदु पर एक भीषण कम्पन (Vibration) दिया जाए, तो जंग की पकड़ ढीली हो जाएगी और ताला टूट जाएगा।
उसने अपने झोले से थोड़ा सा तेल निकाला और उस कील पर डाला। फिर उसने संदूक के नीचे एक पत्थर का सहारा लगाया ताकि संदूक हिले नहीं।
वह निर्णायक क्षण
दरबार में सन्नाटा था। सब सोच रहे थे कि यह क्या कर रहा है? इसने तो अभी तक एक बार भी हथौड़ा नहीं उठाया।
बलबीर ने एक गहरी सांस ली। उसने अपने पैरों को मजबूती से जमाया। अपने भारी घन को हवा में ऊपर उठाया, अपनी बाहों की मछलियों (Muscles) को कसा और पूरी ताकत व एकाग्रता (Focus) के साथ ताले के उस सबसे कमजोर और महत्वपूर्ण बिंदु पर दे मारा।
धड़ाम!!!
आवाज इतनी तेज थी कि कुछ दरबारियों ने अपने कान बंद कर लिए। लोहे से चिंगारी निकली।
जैसे ही धूल छंटी, सबने देखा कि ताला दो टुकड़ों में टूटकर जमीन पर गिर चुका था। संदूक का ढक्कन हल्का सा ऊपर उठ गया था।
राजा अपने सिंहासन से खड़े हो गए। दीनानाथ की आंखें फटी की फटी रह गई। उसने जो काम सौ चोटों में नहीं किया, बलबीर ने एक ही चोट में कर दिखाया।
कहानी के पीछे का तर्क (The Logic Behind the Story)
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राजा विजय सिंह मुस्कुराए। उन्होंने बलबीर को अपने पास बुलाया और पूछा, "बलबीर, दीनानाथ ने इतनी मेहनत की, इतना पसीना बहाया, फिर भी असफल रहा। तुमने बस एक वार किया और काम हो गया। ऐसा क्यों?"
बलबीर ने हाथ जोड़कर कहा, "महाराज, दीनानाथ भाई ने मेहनत बहुत की, लेकिन उनकी चोट में 'वजन' और 'दिशा' (Direction) की कमी थी। वे सतह पर मार रहे थे। मैंने पहले समस्या की जड़ को समझा। मुझे पता था कि अगर मैं सौ बार धीरे-धीरे मारूंगा, तो लोहा गर्म तो होगा पर टूटेगा नहीं। लोहा तब टूटता है जब उसे संभलने का मौका न मिले। मेरी चोट में मेरी ताकत के साथ-साथ सही जगह का चुनाव भी था।"
राजा ने सभा को संबोधित करते हुए कहा, "आज हमें एक बड़ी सीख मिली है। दीनानाथ की सौ चोटें बिखरी हुई ऊर्जा थीं, जबकि बलबीर की एक चोट केंद्रित ऊर्जा (Focused Energy) थी। इसी को कहते हैं—सौ सुनार की, एक लोहार की।"
इस कहानी से सीख (Moral of the Story)
बच्चों, इस कहानी से हमें जीवन के लिए कई महत्वपूर्ण सबक मिलते हैं:
गुणवत्ता मात्रा से बड़ी होती है (Quality over Quantity): आप कितनी देर तक पढ़ाई करते हैं (जैसे 10 घंटे किताब लेकर बैठना), यह मायने नहीं रखता। मायने यह रखता है कि आपने कितने फोकस के साथ पढ़ाई की। 1 घंटे की एकाग्र पढ़ाई, 10 घंटे के दिखावे से बेहतर है।
समस्या को समझें (Analyze the Problem): बलबीर ने तुरंत हथौड़ा नहीं चलाया। उसने पहले ताले को समझा। किसी भी मुश्किल को हल करने से पहले उसे समझना जरूरी है।
सही समय पर सही प्रयास: छोटे-छोटे और कमजोर प्रयास अक्सर ऊर्जा बर्बाद करते हैं। अपनी पूरी शक्ति इकट्ठा करो और सही समय पर सही जगह वार करो।
दूसरों का सम्मान: दीनानाथ ने बलबीर के काम को छोटा समझा था। हमें कभी भी किसी के हुनर का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए। हर काम का अपना महत्व होता है।
निष्कर्ष (Conclusion)
तो दोस्तों, अगली बार जब आप किसी काम में बार-बार अटक रहे हों, तो दीनानाथ की तरह बार-बार वही गलती न दोहराएं। एक पल रुकें, बलबीर की तरह सोचें, अपनी ताकत को इकट्ठा करें और "एक लोहार की" वाला दांव खेलें।
जीवन में सफलता शोर मचाने से नहीं, बल्कि सही जगह चोट करने से मिलती है।
विकिपीडिया लिंक (Wikipedia Link)
लोहार और धातु विज्ञान के बारे में अधिक जानने के लिए आप विकिपीडिया पर पढ़ सकते हैं: Lohar (Blacksmith) - Wikipedia
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