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स्वामी दयानन्द सरस्वती (Swami Dayanand Saraswati) का जीवन ही ज्ञान, संस्कार और भारतीय संस्कृति के उत्थान के लिए समर्पित था। एक बार जब वह कलकत्ता (Kolkata) पहुँचे, तब उनकी मुलाकात एक अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे व्यक्ति से हुई। वह व्यक्ति ब्रह्म समाज (Brahmo Samaj) से जुड़ा हुआ था और अंग्रेज़ी भाषा का बहुत बड़ा समर्थक था। बातचीत के दौरान उसने स्वामी जी से कहा —
"स्वामी जी, अगर आपने अंग्रेजी (English) पढ़ी होती, तो आप सचमुच कमाल कर सकते थे। आप भारत के वेद और उपनिषद विदेशों में भी आसानी से प्रचारित कर सकते थे।"
यह सुनकर स्वामी दयानन्द सरस्वती मुस्कराए और बड़े ही शांत स्वर में बोले —
"अंग्रेज़ी (English) जानना गलत नहीं है, लेकिन आपने भी तो एक बहुत बड़ी गलती की है। आप संस्कृत (Sanskrit) और हिन्दी (Hindi) नहीं जानते। अगर आप इन दोनों भाषाओं के जानकार होते, तो हम दोनों मिलकर ग्यारह हो जाते — यानी हमारी शक्ति दोगुनी हो जाती।"
स्वामी जी का यह तर्क सुनकर वह व्यक्ति चौंक गया। स्वामी जी ने आगे समझाया —
"जिस घर में गंदगी हो, उस घर का मालिक दूसरों को सफाई का उपदेश कैसे दे सकता है? पहले अपने घर (देश) को सुधारो, फिर दुनिया को शिक्षा देना।"
यह सुनकर उस व्यक्ति की आँखें खुल गईं। उसने झुककर स्वामी जी से माफी मांगी और कहा —
"आपने आज मेरी आँखें खोल दीं। अब मैं न केवल अंग्रेजी (English) बल्कि अपनी मातृभाषा हिंदी (Hindi) और संस्कृत (Sanskrit) का भी सम्मान करूँगा।"
उस दिन से उस व्यक्ति ने तय किया कि वह अपनी भारतीय भाषाओं को सीखेगा और अंग्रेजी के साथ-साथ अपने देश की संस्कृति और ज्ञान को भी दुनिया के सामने प्रस्तुत करेगा।
📌 सीख और संदेश (Moral and Message)
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अंग्रेजी (English) सीखना आवश्यक हो सकता है, लेकिन अपनी भाषाओं हिंदी (Hindi) और संस्कृत (Sanskrit) को भूलना नहीं चाहिए।
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जो अपनी संस्कृति से जुड़ा होता है, वही सच्चे अर्थों में विदेशों में भी प्रभावी बनता है।
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पहले अपने देश (India) और समाज में सुधार करना चाहिए, तभी आप दुनिया को भी सही दिशा दे सकते हैं।
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