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दानशीलता पर कहानी - अवध के नवाब आसफुद्दौला बड़े ही उदार हृदय के व्यक्ति थे। उनकी दानशीलता के बारे में यह बात प्रसिद्ध थी कि जो भी उनके दरवाजे पर आता था, वह कभी खाली हाथ नहीं लौटता था। लखनऊ में दो फकीर थे, जो यह गीत गाकर भीख मांगा करते थे:
"सबका मालिक है वह मौला,
रोटी कपड़ा देगा मौला,
सबके दुःख हरेगा मौला।"
दोनों फकीर सुबह से शाम तक लखनऊ की गलियों में घूमते रहते थे, फिर भी उन्हें भरपेट खाना और तन ढकने के लिए पूरा कपड़ा नहीं मिल पाता था।
एक दिन, बहुत निराश होकर एक फकीर ने अपने साथी से कहा, "हमें मौला-मौला करते हुए कई साल हो गए, फिर भी हमारे दुःख दूर नहीं हुए। इसलिए, भाई, मैंने अब यह सोचा है कि इस मौला को छोड़कर आसफुद्दौला से मांग कर देखूं, क्या नतीजा निकलता है।"
दूसरे फकीर ने बहुत समझाया कि चाहे मनुष्य पर कितनी भी विपत्तियां आएं, उसे ईश्वर को नहीं भूलना चाहिए। "तुम संतोष रखो, ईश्वर ने चाहा तो हमारे दिन जरूर फिरेंगे," उसने कहा।
लेकिन उस फकीर ने अपने साथी की बात नहीं मानी। उसने नवाब को खुश करने के लिए एक तुकबंदी बनाई और अगले दिन आसफुद्दौला की ड्योढ़ी पर जाकर आवाज लगाई:
"जिसे न दे मौला,
उसे दे आसफुद्दौला।"
नवाब आसफुद्दौला ने फकीर के ये शब्द सुनकर बहुत खुश हुए और नौकर को उसे दरवाजे पर बैठाने का आदेश दिया। फिर नवाब ने एक कर्मचारी के कान में कुछ कहा, और थोड़ी देर बाद, उस कर्मचारी ने दो खरबूजे लाकर उस फकीर को दे दिए।
फकीर खरबूजे देखकर बहुत दुखी हुआ। जिस दरबार से सैकड़ों रुपये मिलने की आशा थी, वहां से सिर्फ दो खरबूजे मिले! लेकिन शिष्टाचार के नाते उसने कुछ नहीं कहा और नवाब साहब को धन्यवाद देता हुआ वहां से चला आया। फकीर को सुलफा (एक प्रकार का तम्बाकू) पीने की आदत थी और इस समय उसे चिलम पीने की तलब लगी हुई थी। वह भागा हुआ सुलफा की दुकान पर गया। दुकानदार उस समय मौजूद नहीं था, उसका नौकर बैठा हुआ था। फकीर ने कहा, "बाबा, मुझे कल से सुलफा नहीं मिला है। दम निकल जाता है, पैसे मेरे पास नहीं हैं। तू ये खरबूजे ले ले और वो चिलम सुलफा दे दे।"
नौकर ने खरबूजे लेकर सुलफा दे दिया। थोड़ी देर बाद दुकानदार आ गया और नौकर से पूछा, "ये खरबूजे कहां से आए हैं?" नौकर ने बता दिया कि फकीर दे गया है। इस पर दुकानदार नाराज हुआ और नौकर से कहने लगा, "तू सुलफा मुफ्त में दे देता, लेकिन फकीर के खरबूजे नहीं लेने चाहिए थे।"
थोड़ी देर बाद वह दूसरा फकीर वहां आ गया और दुकानदार ने वे खरबूजे उसे दे दिए। फकीर ने खरबूजों को ध्यान से देखा तो उसे मालूम हुआ कि वे बारीक धागों से सिले हुए हैं। फकीर ने अपनी झोपड़ी में जाकर खरबूजों को चीरा तो उनमें से हीरे-जवाहरात निकले। उसने उन्हें पांच हजार रुपये में बेच दिया और भीख मांगना बंद करके बड़े ठाठ से रहने लगा।
करीब आठ दिन बाद वह पहला फकीर नवाब आसफुद्दौला के दरवाजे पर पहुंचा और वही आवाज लगाई, "जिसे न दे मौला, उसे दे आसफुद्दौला।" नवाब आसफुद्दौला ने फकीर की आवाज पहचान ली। उन्हें बहुत क्रोध आया कि हजारों रुपये का माल उसे दिया, फिर भी इसे संतोष नहीं हुआ!
उन्होंने फकीर को बुलाकर खरबूजों के बारे में पूछा। जब फकीर ने सब हाल सुनाया, तो नवाब साहब की आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने कहा, "मुझे अपनी दानशीलता पर घमंड हो गया था। वास्तव में देने वाला खुदा ही है। जो फकीर खुदा से मांगता था, वह मालदार हो गया, और वह जिसे मैं देना चाहता था, वह कंगाल का कंगाल ही रहा।"