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धरमचन्द की सहृदयता- सोनजूही छोटा सा गांव था। धरमचन्द वहाँ का मुखिया था । उसके पास काफी खेती बाड़ी थी । फसल भी खूब होती। किसी चीज की कमी उसे नहीं थी।
जाड़े का मौसम था । धरमचन्द के पास एक कोट था बहुत पुराना । एक दिन सरपंच जालिम सिंह ने उसे छेड़ा, 'बहुत कंजूस हो। यह कोट बरसों से पहन रहे हो। अब यह ठीक नहीं लगता । क्यों नहीं, एक नया कोट सिलवा लेते हो !'
'वैसे अभी इस कोट में कुछ नहीं हुआ है। कहीं जरा सा भी फटा नहीं है। मजे में दो तीन साल और चल सकता है । फिर भी तुम कहते हो तो एक नया कोट ज़रूर सिलवा लूँगा ।' मुखिया बोला ।
'आज ही कपड़े खरीद लो । दर्जी भी कहीं दूर में नहीं है। झट उसे सीने भी दे दो ।' सरपंच ने बात आगे बढ़ायी। सरपंच ने बात आगे बढ़ायी। 'जैसी तुम्हारी मर्जी, चलो बजरंग सेठ की दूकान से अभी कोट के कपड़े खरीद लेता हूँ !' 'हाँ चलो।' दोनों उधर ही बढ़े। कपड़े खरीद कर मुखिया धरमचन्द नें गाँव के ही दर्जी खुलेमान खाँ को को सीने के लिए दे दिया।
पाँच दिन बाद मुखिया जी नया कोट लेकर घर आया । अगले दिन से उसे पहनने का विचार भी किया। कई दिन गुजर गए। सरपंच जालिम सिंह से फिर एक दिन सुखिया धरमचन्द की हुई। मुखिया को वही 'पुराना कोट पहने देखकर सरपंच बोल उठा, 'क्यों भाई, क्या दर्जी ने अभी तक तुम्हारा नया कोट सीकर नहीं दिया है ?'
'उसने तो एक सप्ताह पहले ही दे दिया है।' 'फिर उसे पहनते क्यों नहीं ? क्या पुराना कोट से अभी तक मोह नहीं छूटा है।'
'ऐसी बात नहीं है ?' तो कौन सी बात है ?' सरपंच ने जिरह किया।
'मेरा नौकर मंगलू है न !
उसके पास जाड़े का एक भी कपड़ा नहीं था। एक दिन उसने मुझे अपनी समस्या बतायी और मेरा पुराना कोट मांग बैठा ।' 'फिर ?' 'मैंने उसे नया कोट ही दे दिया पहले वह हिचकिचाया मगर मेरे बहुत कहने पर उसने उसे ले लिया ।' मुखिया बोला ।
नहीं पाता । कपड़े की कद्र करना वह जानता ही नहीं है। नतीजा होता कि महीना भर के अन्दर ही वह कोट फट जाता, जिसकी वह मरम्मत भी नहीं करा पाता । उसकी समस्या फिर पहले जैसी बनी रह जाती, 'मुखिया ने आगे कहा, 'कुछ यही सोचकर मैंने उसे अपना नया कोट दे दिया । नया कोट जल्द नहीं फटेगा । कई साल तक वह उसे मजे में पहनेगा
'बहुत मूर्ख हो तुम। नौकर को नया कोट देने की क्या जरूरत थी ? पुराना कोट ही ।' उसे देना चाहिए ।' सरपंच जालिम सिंह को मुखिया धरमचन्द की यह दानशीलता बहुत अखड़ी, अच्छी नहीं लगी।
धरमचन्द ने जालिम सिंह को यॊ समझाया, 'मंगलू सब काम में ठीक है। सिर्फ अपने कपड़े के प्रति बहुत लापरवाह रहता है । कोई भी पुराना कपड़ा उसके शरीर पर अधिक दिनों तक नहीं टिकता ।...'
'उससे तुम्हारा क्या मतलब है ?' सरपंच ने मुखिया की बात काट कर पूछा।
'अगर मैं उसे अपना पुराना कोट देता तो वह मुश्किल से उसे एक महीना भी चला और तुम क्या पहनोगे ?' खीज कर सरपंच बोला ।
हँसते हुए मुखिया ने जवाब दिया, 'मेरे लिए यह पुराना कोट ही ठीक है। मैं इसे मजे में तीन चार साल तक और में तीन चार साल तक और पहन सकता हूँ। बाद में नया
सिलवा लूँगा।'
जालिम सिंह को धरमचन्द का चरित्र अजीब जान पड़ा। उसे अपने पर लज्जा आयी कि उसने धरमचन्द को कंजूस कैसे कह दिया । स्वयं पुराना कोट पहनना और दूसरे को नया कोट दान में दे देने वाला व्यक्ति भला कंजूस कैसे हो सकता है ?' धरमचन्द के प्रति जालिम सिंह की पूर्व धारणा आज बिल्कुल बदल गयी। उसे जान पड़ा धरमचन्द सचमुच एक सहृदय और परोपकारी व्यक्ति है, जिसे अपने से अधिक दूसरे के सुख दुःख की चिन्ता रहती है। श्रद्धा से उसका मस्तक उसके आगे झुक गया।
इस कहानी से मिलने वाली दो प्रमुख सीख:
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परोपकार और सहृदयता का महत्व:
धरमचन्द का व्यवहार दिखाता है कि दूसरों की जरूरतों को प्राथमिकता देना और उनकी समस्याओं का समाधान करना सबसे बड़ा गुण है। अपनी सुविधा को त्यागकर जरूरतमंद की मदद करना इंसान को महान बनाता है। -
सच्चा त्याग और समझदारी:
परोपकार के साथ-साथ धरमचन्द ने अपने निर्णय में समझदारी का परिचय दिया। उन्होंने पुराने कोट के बजाय नया कोट देने का फैसला किया ताकि नौकर मंगलू इसे लंबे समय तक उपयोग कर सके। यह दर्शाता है कि दान तभी प्रभावी होता है जब उसे समझदारी और सच्चे दिल से किया जाए।
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