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नींद खुली जब सूरज की कविता एक सुंदर और भावनात्मक रचना है, जो बचपन की मासूमियत और उजियारे (प्रकाश) की चाह को खूबसूरती से दर्शाती है। यह कविता एक बच्चे के दृष्टिकोण से लिखी गई है, जिसमें वह सुबह होते ही अपनी माँ को पुकारता है, नहाने और तैयार होने की जल्दी में रहता है। माँ से गमछा माँगना, जल्दी कुछ खाने को माँगना और उजाले को दुनिया में फैलाने की उत्सुकता इस कविता में बहुत सहज रूप में उभरती है।
कविता का संदेश यही है कि हर इंसान के भीतर उजियारे की एक चाह होती है। बचपन में यह चाह और भी अधिक निश्छल और सच्ची होती है। उजियारा सिर्फ सूरज की रोशनी ही नहीं, बल्कि मन की सकारात्मक सोच और सच्चाई का प्रतीक भी है।
कविता हमें यह याद दिलाती है कि जैसे बचपन में हम अँधेरे से उजाले की ओर दौड़ते थे, वैसे ही बड़े होने पर भी हमें अपनी सोच में उजियारा बनाए रखना चाहिए।
नींद खुली जब सूरज की
मां को आवाज़ लगाई,
जल्दी मुझे नहाना है,
गमछा दे दो माई।
सच पड़ेगी देर हुई तो
आसमान चिल्लाएगा,
अंधेरों को इस दुनिया से
कौन दूर ले जाएगा?
झटपट कुछ खाने को दे दो
तो अम्मा मैं जाऊं,
रात बीतने चली है
अब तो सुबह मैं ले के आऊं।
चिड़िया, तितली, फूल सभी
देख रहे हैं राह,
सबके भीतर उग आयी है
उजियारे की चाह।