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अहंकार का टूटना: एक राजा और विद्वान की कहानी- बहुत पुराने समय की बात है। एक राज्य था, जिसका राजा अहंकारी और घमंडी था। उसके पास विशाल दरबार, अनगिनत नौकर-चाकर और सभी प्रकार की राजसी सुख-सुविधाएँ थीं। उसके दरबार में एक बहुत ही विद्वान पंडित भी थे, जिन्हें राजा बड़ा सम्मान देता था। मगर इस सम्मान के बावजूद, राजा ने हमेशा पंडित जी को अपने से नीचे समझा और कभी उन्हें बराबरी का दर्जा नहीं दिया।
राजा का घमंड इतना बढ़ गया था कि वह दरबार के मंत्रियों को भी मूर्ख या अज्ञानी कहकर संबोधित करता। दरबारी और जनता राजा के इस घमंड के कारण उससे डरते थे। लेकिन इस व्यवहार का उनपर धीरे-धीरे बुरा असर पड़ने लगा। एक बार राजा को लगा कि अपने राज्य की जनता को शिक्षा देने और अपने ज्ञान को प्रदर्शित करने के लिए एक विशेष सभा का आयोजन किया जाए। उसने विद्वान पंडित को आदेश दिया कि वे सभा में अपना विशेष भाषण दें। पंडित जी को भी लगा कि यह उनके ज्ञान को समाज में साझा करने का अच्छा अवसर है।
सभा में राजा और प्रजा के सामने पंडित जी ने अपना ज्ञानवर्धक भाषण दिया। भाषण समाप्त होने पर, पंडित ने गर्व से वहां उपस्थित एक व्यक्ति से पूछा, "क्या तुमने मेरा भाषण समझा?" वह व्यक्ति, जो कि एक मामूली काम करने वाला माली था, सिर झुकाकर बोला, "मुझे माफ करें महाराज, मैं तो बस मामूली कामकाज में लगा रहने वाला व्यक्ति हूँ। मुझे आपकी बातें समझ में नहीं आईं।"
यह सुनकर राजा ने उस व्यक्ति का अपमान करना शुरू किया और उसे मूर्ख कहा। तब वह व्यक्ति शांत स्वर में बोला, "महाराज, मैं मूर्ख सही हूँ, लेकिन इतना जानता हूँ कि जब मैं भोजन बनाता हूँ तो पूरे दरबार को परोसता हूँ। यदि मैं न होता तो कोई भोजन का आनंद न ले पाता। इसी प्रकार, हम सभी अपने काम से दूसरों की सेवा करते हैं।"
उसके इन शब्दों ने राजा को गहराई से सोचने पर मजबूर कर दिया। राजा को समझ में आया कि हर व्यक्ति का काम महत्वपूर्ण है और घमंड केवल अपने पतन का कारण बनता है। उस दिन से राजा ने अपने घमंड का त्याग कर दिया और सभी को सम्मान देने का प्रण किया।
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