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ज्ञान और अहंकार: एक शिक्षाप्रद कहानी
एक समय की बात है, एक बहुत दूर गाँव में एक युवा पंडित रहता था जिसका नाम था विद्यासागर। जैसा कि उसके नाम से ही पता चलता है, वह ज्ञान का सागर था। उसने वेद-पुराण, शास्त्र और ज्योतिष का गहरा अध्ययन किया था। उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। लोग कहते थे कि विद्यासागर के तर्क के सामने बड़े-बड़े विद्वान भी नहीं टिक पाते थे। इस अपार ज्ञान के कारण उसके मन में धीरे-धीरे अहंकार आ गया था। उसे लगता था कि इस दुनिया में उससे ज्यादा ज्ञानी कोई नहीं है।
एक दिन वह अपने ज्ञान का प्रदर्शन करने के लिए पास के एक बड़े शहर की ओर जा रहा था। रास्ते में उसे बहुत प्यास लगी। उसने देखा कि एक बूढ़ी महिला एक कुएँ से पानी भर रही है। वह उसके पास गया और बोला, "माते, मैं एक बहुत बड़ा पंडित हूँ। मुझे बहुत प्यास लगी है, कृपया मुझे पानी पिला दीजिए।"
बूढ़ी महिला ने मुस्कुराते हुए कहा, "बेटा, तुम पंडित हो या मूर्ख, ये तो मैं नहीं जानती, लेकिन तुम्हें पानी तो मैं ही पिलाऊँगी। पर उससे पहले यह तो बताओ कि तुम कौन हो?"
विद्यासागर को थोड़ा गुस्सा आया। उसने सोचा, 'यह साधारण बूढ़ी औरत मुझसे मेरा परिचय पूछ रही है।' उसने गर्व से कहा, "मैं अतिथि हूँ। अब जल्दी से पानी पिलाओ।"
बूढ़ी महिला ने हँसते हुए कहा, "नहीं बेटा, तुम अतिथि कैसे हो सकते हो? इस दुनिया में दो ही अतिथि हैं - पहला मृत्यु और दूसरा समय। ये कब आते हैं और कब चले जाते हैं, कोई नहीं जानता। तुम्हारा परिचय सच नहीं है।"
विद्यासागर हैरान रह गया। उसने पहली बार किसी के सामने तर्क में हार मानी थी। वह थोड़ा शांत हुआ और बोला, "ठीक है, मैं यात्री हूँ। अब तो पानी पिला दीजिए?"
बूढ़ी महिला ने फिर से मुस्कुराते हुए कहा, "यात्री भी तुम नहीं हो, बेटा। इस संसार में दो ही यात्री हैं - पहला चंद्रमा और दूसरा सूर्य। ये दोनों हर दिन एक नई यात्रा पर निकलते हैं और बिना थके अपनी यात्रा पूरी करते हैं। तुम सच बताओ, तुम कौन हो?"
अहंकार की हार:
विद्यासागर का अहंकार धीरे-धीरे टूट रहा था। उसके माथे पर पसीना आ गया था। वह सोच में पड़ गया कि आखिर वह कौन सा परिचय दे, जो इस बूढ़ी महिला के तर्क के सामने सही साबित हो।
वह थोड़ा निराश होकर बोला, "तो फिर मैं एक बेचारा इंसान हूँ, जो अपनी प्यास बुझाने की कोशिश कर रहा है।"
बूढ़ी महिला ने प्रेम से कहा, "बेटा, इंसान भी तुम कैसे हो सकते हो? इंसान तो वही है जो अपने अन्न के कण और अपने आनंद के क्षण को कभी व्यर्थ न जाने दे। जो भूखे को खाना खिलाए और खुद खुश रहे। तुम तो अभी अपनी प्यास की चिंता में ही डूबे हो।"
विद्यासागर की आँखें खुल गईं। वह समझ गया कि वह केवल किताबों का ज्ञान लेकर घूम रहा था, लेकिन जीवन का सच्चा ज्ञान उसके पास नहीं था। वह बूढ़ी महिला के पैरों पर गिर पड़ा और रोते हुए बोला, "माते, आप सही कह रही हैं। मेरा सारा ज्ञान व्यर्थ है क्योंकि उसमें अहंकार भरा है। मुझे क्षमा कर दीजिए।"
बूढ़ी महिला ने उसे उठाया और अपने हाथों से पानी पिलाया।
पानी पीने के बाद विद्यासागर ने ऊपर देखा, तो वहाँ कोई नहीं था। उसे लगा जैसे यह सब एक सपना था, लेकिन पास में रखा पानी का घड़ा और उसकी झुकी हुई गर्दन उसे सच्चाई का एहसास दिला रही थी। वह समझ गया कि यह कोई साधारण बूढ़ी महिला नहीं थी, बल्कि ज्ञान की देवी सरस्वती थीं, जिन्होंने उसे उसकी गलती का एहसास दिलाने के लिए यह रूप धारण किया था।
उस दिन के बाद, विद्यासागर ने अपनी यात्रा का उद्देश्य बदल दिया। अब वह सिर्फ ज्ञान का प्रचार नहीं करता था, बल्कि अपने ज्ञान का उपयोग दूसरों की सेवा और भलाई के लिए करता था। उसका अहंकार पूरी तरह से खत्म हो चुका था और उसकी विद्वता और विनम्रता का नया अध्याय शुरू हो गया था।
कहानी का सार:
यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्चा ज्ञान केवल किताबों तक सीमित नहीं होता, बल्कि जीवन के अनुभवों से मिलता है। ज्ञान का अहंकार सबसे बड़ा दुश्मन है, क्योंकि यह हमें सच देखने से रोकता है और हमें पतन की ओर ले जाता है। सच्ची विद्वता विनम्रता से आती है और दूसरों के प्रति दया भाव से निखरती है।
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