![Path of Truth Story of Nawal and Samar](https://img-cdn.thepublive.com/fit-in/1280x960/filters:format(webp)/lotpot/media/media_files/sacchai-ki-raah-motivational-kahani-1.jpg)
कहानी: सच्चाई की राह
किसी नदी के किनारे एक महर्षि का आश्रम था। वह अपने कई शिष्यों सहित वहाँ रहा करते थे। उनका जीवन सादगी से भरा था। महर्षि हमेशा अपने शिष्यों को ऐसी बातें ही बताया करते थे, जिन्हें जीवन में अपनाने से मानव मूल्य की वृद्धि हो और मानवता फले-फुले।
एक दिन की बात है। आश्रम के शिष्यों में नवल और समर की शिक्षा पूरी हो गई थी। उन्हें आश्रम से विदा करने से पूर्व दीक्षांत समारोह हुआ। महर्षि ने दीक्षा देते हुए, उन दोनों से कहा, "मेरे प्यारे बच्चों, जीवन में सच्चाई हमारे जीवन का सार है। जीवन में इसे अपनाए बिना आज तक कोई महान नहीं बन सका और झूठ.....?"
नवल ने बीच में ही महर्षि की बात काटते हुए पूछा, "वह हमारे चरित्र को गिरता जाता है, अतः त्याज्य है!" महर्षि ने दोनों को समझाते हुए आगे कहा, "आज दीक्षांत समारोह में मैं तुम दोनों से यही अपेक्षा करता हूँ कि अपने वास्तविक जीवन में हमेशा सचाई की राह पर ही चलोगे। किसी भी हालत में उससे डिगोगे नहीं!"
नवल ने फिर कोई प्रतिवाद नहीं किया। वह चुप रह गया.. मगर जीवन में सच्चाई को अपनाकर आगे बढ़ने वाली महर्षि की बातें उसके गले में बिल्कुल नहीं उतरीं। समर को महर्षि की प्रत्येक बात तर्कपूर्ण जान पड़ी।
दीक्षांत समारोह के बाद दोनों महर्षि को प्रणाम कर घर के लिए विदा हुए। दोनों एक ही गांव के थे। गाँव का नाम 'फूलपुर' था।
कई साल बीत गए। एक बार महर्षि फूलपुर गाँव से होकर गुजर रहे थे। अचानक उन्हें अपने शिष्यों नवल और समर की याद हो आई। उन्होंने एक ग्रामवासी से दोनों को अपने आने की सूचना भिजवायी। इस बीच वह गाँव के एक मंदिर में ठहरे, जहाँ रंग-बिरंगे फलों के पौधे लहलहा रहे थे। खबर मिलते ही दोनों दौड़ते हुए महर्षि के समीप आए। फिर दोनों ने उनके चरण छुए।
महर्षि ने दोनों को गौर से देखा, उसके बाद समर से पूछा, "तुम्हारा चेहरा मुरझाया क्यों है?"
"हाँ गुरूदेव। सचाई की कंटीली राह पर चलकर मैं जरूर मुरझा गया हूँ। मगर उस राह को छोड़ा नहीं है, चल ही रहा हूँ और चलता रहूँगा!!" समर ने अपनी आपबीती सुनाई।
"लेकिन तुम तो खूब खुश दिखते हो!" महर्षि ने अब नवल की ओर निहारा।
"निस्संदेह!" नवल बोला, "खुश इसलिए हूँ कि मैंने समर जैसी राह नहीं पकड़ी, नहीं तो आज मेरी भी वही दशा रहती। मैं तो उसके एकदम उल्टी राह चल रहा हूँ!"
महर्षि एक क्षण चुप रहे। फिर उन्होंने दोनों का ध्यान मंदिर के अहाते में खिले एक फूल की ओर खींचा। "यह कौन सा फूल है?"
"पलाश है!" समर बोला।
"कैसा दिख रहा है?"
"खूब खिला है, बहुत सुंदर लग रहा है!" नवल ने कहा।
"मगर जानते हो, इस फूल में सुरभि नहीं है!" महर्षि बोले।
"सच कहा आपने," नवल ने स्वीकार किया।
उसके बाद महर्षि ने एक दूसरे फूल की ओर संकेत कर कहा, "वह कौन सा फूल है?"
"गुलाब है!" समर की आवाज थी।
"कैसा नजर आता है वह?"
"मुरझाया हुआ है!" नवल ने जवाब दिया।
"फिर भी उसमें सुरभि है!!" महर्षि ने अपनी बात पूरी करते हुए दोनों से आगे कहा, "याद रखो, झूठ के सहारे खिलने की अपेक्षा सच से मुरझा जाना अधिक अच्छा है क्योंकि मानव जीवन की सुरभि सच ही तो है और सुरभि बिना जीवन व्यर्थ है!"
महर्षि के इस कथन ने जहां समर के मुरझाए जीवन में एक नयी उमंग भर दी, वहीं नवल को भी एक नया दिशा बोध देते हुए अपनी भूल सुधारने के लिए प्रेरणा भी प्रदान की।
कहानी से सीख:
सच्चाई की राह पर चलना हमेशा कठिन हो सकता है, लेकिन यह जीवन को सार्थक और सुरभित बनाता है। झूठ के सहारे जीने से बेहतर है सच्चाई के साथ मुरझा जाना, क्योंकि यही हमारे जीवन की असली सुंदरता है।
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