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“नींद न आई सारी रात” एक अत्यंत भावपूर्ण और विचारोत्तेजक कविता है, जो बाहरी और भीतरी पीड़ा के अंतर को सरल लेकिन गहरे अर्थों में समझाती है। इस कविता में कवि ने लोहे और सोने के प्रतीक के माध्यम से मनुष्य के जीवन की एक कड़वी सच्चाई को उजागर किया है। बाहर से मिलने वाला दुख चाहे कितना भी कठोर क्यों न हो, उसे इंसान सह लेता है, लेकिन जब वही पीड़ा अपने ही लोगों से मिलती है, तो वह भीतर तक तोड़ देती है।
कविता यह संदेश देती है कि अपनों द्वारा दिया गया आघात सबसे अधिक पीड़ादायक होता है। लोहे का चिल्लाना केवल शारीरिक चोट का प्रतीक नहीं है, बल्कि वह मानसिक वेदना को दर्शाता है, जो अपने ही लोगों से मिले व्यवहार से जन्म लेती है। वहीं सोना अपेक्षाकृत शांत है, क्योंकि उसके दुख देने वाले “ग़ैर” हैं, जिनसे भावनात्मक अपेक्षाएँ नहीं होतीं।
यह कविता छात्रों और पाठकों को संवेदनशीलता, आत्मचिंतन और मानवीय रिश्तों की गहराई को समझने में मदद करती है। सरल भाषा, संवादात्मक शैली और गूढ़ अर्थ इसे हिंदी साहित्य की एक प्रभावशाली रचना बनाते हैं। यह कविता न केवल पाठ्यक्रम के लिए उपयोगी है, बल्कि जीवन के अनुभवों से भी गहरा संबंध रखती है, इसलिए यह लंबे समय तक पाठकों के मन में बनी रहती है।
नींद न आई सारी रात
लोहे-सोने की दुकान थी,
यह धरती, वह आसमान था।
पास-पास थीं, बड़ा नाम था,
दोनों पर ही बहुत काम था।
लोहा नित पीटा जाता था,
सोना भी थप्पड़ खाता था।
लोहा ज़्यादा चिल्लाता था,
जब-जब वह पीटा जाता था।
एक रात जब सब सोए थे,
मीठे सपनों में खोए थे।
सोना बोला यों लोहे से,
भैया, क्यों चिल्लाते ऐसे?
हम दोनों पीटे जाते हैं,
मार सदा दोनों खाते हैं।
पर तुम ज़्यादा चिल्लाते हो,
शोर मचाते, झल्लाते हो।
लाभ नहीं कुछ चिल्लाने से,
अपनी पीड़ा को गाने से।
लोहा बोला, ओ दीवाने,
तू मेरी पीड़ा क्या जाने।
अरे, तुझे है गैर सताता,
मैं अपनों से पीटा जाता।
बेगाने जब दुख देते हैं,
हम चुपचुप उसको सह लेते हैं।
अपने जब पीड़ा पहुँचाते,
कभी न हम चुपचुप सह पाते।
अपनों का निर्दय आघात,
प्राणों को मथ देता तात।
सोने ने समझी जब यह बात,
दुनिया निंदा ही करती है।
नींद न आई सारी रात,
किसकी पीड़ा वह हरती है।
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