झूठ जब सच जैसा लगे – धोखा न खाएँ

हमारे जीवन में कई बार ऐसा होता है कि हम अपनी आँखों से देखी बात पर भी संदेह करने लगते हैं, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि आस-पास के लोग बार-बार कुछ और कहते रहते हैं।

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हमारे जीवन में कई बार ऐसा होता है कि हम अपनी आँखों से देखी बात पर भी संदेह करने लगते हैं, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि आस-पास के लोग बार-बार कुछ और कहते रहते हैं। सच को पहचानने के बावजूद झूठ को सच मान लेना ही सबसे बड़ी गलती होती है। यही सच्चाई हमें यह कहानी “झूठ जब सच जैसा लगे – धोखा न खाएँ” सिखाती है।

कहानी

बहुत समय पहले की बात है। एक गाँव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था। एक दिन उसे एक परिवार ने ब्राह्मण भोज पर बुलाया। भोजन के बाद वे लोग ब्राह्मण को दान स्वरूप एक बकरा देकर विदा करने लगे। ब्राह्मण उस बकरे को कंधे पर रखकर खुशी-खुशी अपने घर की ओर चल पड़ा।

रास्ता लंबा और सुनसान था। उसी समय तीन ठगों की नज़र ब्राह्मण पर पड़ी। उन्होंने मिलकर योजना बनाई कि किस तरह उस बकरे को हथियाया जाए। तीनों ने तय किया कि वे अलग-अलग समय पर ब्राह्मण के पास जाकर उसे धोखा देंगे।

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पहला ठग उसके पास पहुँचा और बोला – “पंडितजी, यह आपने क्या कर दिया? ब्राह्मण होकर कंधे पर कुत्ता उठाकर जा रहे हैं!” ब्राह्मण हैरान हुआ और बोला – “अरे, यह कुत्ता नहीं, बकरा है। झूठ क्यों बोलते हो?” ठग हँसते हुए बोला – “आपकी मर्जी, मैंने तो बस कहा।”

थोड़ी दूर चलने पर दूसरा ठग मिला। उसने भी वही बात कही – “पंडितजी, बड़े लोग अपने कंधे पर कुत्ता नहीं उठाते।” ब्राह्मण ने उसे भी डांट दिया और आगे बढ़ गया।

आखिर में तीसरा ठग आया और उसने भी वही बात दोहराई – “पंडितजी, कुत्ते को ऐसे लेकर जाना ठीक नहीं।” अब ब्राह्मण का मन डगमगा गया। उसने सोचा कि अगर तीन लोग लगातार यही बात कह रहे हैं तो कहीं यह सच तो नहीं? शक में पड़कर उसने रास्ते में ही बकरा उतार दिया और घर चला गया।

जैसे ही ब्राह्मण वहाँ से गया, तीनों ठगों ने बकरे को पकड़ लिया और मिलकर उसका मांस पकाकर दावत उड़ाई।


सीख (Moral of the Story)

इस कहानी से हमें यह सबक मिलता है कि झूठ को अगर बार-बार और कई लोग मिलकर बोलें, तो वह सच जैसा लगने लगता है। इसलिए हमें अपनी आँखों और दिमाग पर भरोसा करना चाहिए और बिना सोचे-समझे दूसरों की बातों में नहीं आना चाहिए।

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