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गाँव के बाहर रहने वाले अंधे पंडित जगतू जी को सेठ के घर दावत का बुलावा आता है। नौकर बोल जाता है “हलवा, पूरी, बर्फी, अगेरह-वगैरह”। पंडित जी “अगेरह-वगैरह” को कोई नया स्वादिष्ट पकवान समझ बैठते हैं और पूरे दिन उसी के ख्वाब देखते हैं। दावत में जो होता है, वो पढ़कर आप हंसी से लोटपोट हो जाएंगे!
चलो, अब पढ़ते हैं ये गुदगुदाने वाली हंसोड़ कहानी...
हमारे गाँव से थोड़ा बाहर, आम के बाग के पास एक छोटी-सी झोंपड़ी थी। उसमें रहते थे जगतू पंडित जी – दोनों आँखों से अंधे, पर दिल के बहुत साफ और हाज़िर-जवाब। गाँव वाले बड़े प्यार से उन्हें “जगतू महाराज” कहते थे।
एक दिन गाँव के बड़े सेठ के घर बेटे की मुंडन की दावत थी। सेठ जी ने सारे पंडितों को बुलाया। नौकर भोला को बोला, “जा, जगतू पंडित को भी बुला के ला।”
भोला झोंपड़ी के बाहर चिल्लाया, “पंडित जी… ओ पंडित जी…!” अंदर से आवाज़ आई, “कौन भाई… कौन है?” भोला – “मैं भोला, सेठ जी का नौकर। आज मुंडन की दावत है, आपको भी पधारने का बुलावा है।” जगतू जी – “अच्छा अच्छा… बिल्कुल आऊंगा भाई, बिल्कुल आऊंगा।” भोला मुड़ा ही था कि पंडित जी फिर बोले, “अरे भोला, ज़रा ये तो बता, आज खाने में क्या-क्या बना है?”
भोला हंसा, “पंडित जी, सेठ जी की दावत है, छोटा-मोटा थोड़े है! हलवा, पूरी, रसगुल्ला, जलेबी, बर्फी, सेव-नमकीन… अगेरह-वगैरह सब कुछ!”
जगतू जी ने सिर हिलाया, “हाँ हाँ, मुझे मालूम था… अगेरह-वगैरह तो होगा ही!”
भोला चला गया। पंडित जी झोंपड़ी में बैठे रहे और मन ही मन सोचने लगे, “हलवा-पूरी तो मैंने पहले भी खाया, रसगुल्ला भी चखा… पर ये अगेरह-वगैरह क्या बला है? कोई नया विदेशी पकवान लगता है। इस बार तो मज़ा आ जाएगा!”
पूरे दिन पंडित जी ने कुछ नहीं खाया। बस नमक का पानी पी-पीकर भूख बढ़ाते रहे। सोचते रहे – “अगेरह-वगैरह… कैसा होगा? शायद गोल-गोल हो, शायद चटपटा हो… वाह!”
शाम को भोला आया। पंडित जी ने अपना अच्छा साफा बांधा, लाठी टेकी और चल पड़े। दावत में पहुंचते ही भोला ने उन्हें पंगत में बिठा दिया।
अब तो पंडित जी की बेचैनी बढ़ गई। पत्तल लगी। एक-एक चीज परोसी जाने लगी। पहला लड़का – “पंडित जी, पूरी लीजिए।” पंडित जी ने हाथ से टटोला – “अरे ये तो पूरी है।” दूसरा – “रसगुल्ला लीजिए।” “हाँ हाँ, ये तो पुराना मालूम है।” तीसरा – “बर्फी?” “अरे ये भी तो खा चुका!”
पत्तल भर गई, पर पंडित जी का मन नहीं भरा। मन ही मन बुदबुदाने लगे, “अब तो अगेरह-वगैरह आएगा… अब तो आएगा…”
तभी किसी ने कहा, “भोजन शुरू कीजिए।”
पंडित जी घबराए, “अरे भाई, मेरा अगेरह-वगैरह कहाँ है?” उन्होंने हाथ फैलाकर टटोला। पत्तल के बाहर एक गोल-मटोल चीज हाथ लगी – वो था पत्तल को दबाने वाला पत्थर!
पंडित जी खुश हो गए, “अरे मिल गया! यही होगा अगेरह-वगैरह! लोग भी कितने बेवकूफ हैं, खाने की चीज को बाहर रख दिया!”
सबको लगा रहे थे, पंडित जी ने वो पत्थर उठाया और मुँह में ठूंस लिया। “अरे बाप रे… कितना सख्त है ये!” फिर जोर से दाँतों से काटा – “आह्ह्ह… मेरा दाँत!”
फिर दिमाग दौड़ाया, “शायद फोड़ना पड़ेगा। अंदर से कुछ मीठा निकलेगा।” पंडित जी ने पत्थर को ज़ोर से सामने की तरफ दे मारा – सामने पंगत में बैठे एक मोटे चाचा का सिर था!
“आआआआआह्ह्ह… फूट गया रे मेरा सिर!” चाचा दर्द से चिल्लाए। पंडित जी गुस्से में बोले, “ओय खाना मत! ये मेरा अगेरह-वगैरह है! फूट गया तो ला वापस दे!” चाचा अब गुस्से में लाल-पीले, “हाँ महाराज, अभी देता हूँ!” और लाठी लेकर टूट पड़े।
पंडित जी लाठी खाते-खाते बोले, “अरे भोला… अगेरह-वगैरह तो बहुत महंगा पकवान निकला रे!”
उस दिन के बाद जब भी गाँव में दावत होती, भोला पहले ही पंडित जी को समझा देता, “पंडित जी, आज सिर्फ हलवा, पूरी, रसगुल्ला… कोई अगेरह-वगैरह नहीं!” पंडित जी हंसते, “अरे भोला, अब तो मुझे पता चल गया… अगेरह-वगैरह का मतलब ‘और भी बहुत कुछ’ होता है!”
अब गाँव के बच्चे जब भी “अगेरह-वगैरह” सुनते, हंसते-हंसते लोटपोट हो जाते और पंडित जी की कहानी दोहराते।
(वैसे “अगेरह-वगैरह” जैसी मज़ेदार देसी बोलचाल के बारे में और जानना हो तो हिंदी मुहावरे विकिपीडिया पेज देख सकते हो!)
सीख (हंसते-हंसते):
दोस्तों, कभी जल्दबाज़ी में बात को गलत मत समझो, वरना पत्थर भी अगेरह-वगैरह लगने लगता है! और हाँ, खाने से पहले अच्छे से टटोल लिया करो!
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