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बाल कहानी (Kid Story) असलियत पता चली: गर्मी के दिन थे। गंगा नदी के घाट-घाट पर भीड़ रहती थी। स्नान करने वालों का तांता लगा रहता था। भीड़ ही भीड़! शोर ही शोर! जिधर देखो, उधर चिल्लपों-चीख पुकार!! स्नानार्थी आधी रात तक भी सिमटने का नाम नहीं लेते थे।
ऐसे ही एक घाट पर लड़कों का एक झुण्ड नदी में छुआ-छू खेल रहा था। कोई नदी की धार में तैरता चला जाता तो कोई पानी के भीतर पनडुब्बल सा बैठ जाता।
नन्हें-नन्हें गोताखोंरों का यह दल पूरे मनोयोग से स्नान कर रहा था। अवकाश के दिनों में भला कोई घर क्यों बैठता?
सुरेन्द्र ने गहरे पानी में डुबकी ली तो उसे रेत में चमकती हुई एक अंगूठी दिखी। वह उसे लेकर पानी से बाहर आया तो पता चला कि अंगूठी सोने की है। सुरेन्द्र के हाथ में सोने की अंगूठी देखकर सब के सब खुशी से चमक उठे।
चलो इसे बेचकर मजे उड़ाएँ। एक स्वर में सभी ने कहा।
‘‘सिनेमा’’
‘‘गोल-गप्पे’’
‘‘सैर-सपाटे’’
तालियां बजा-बजाकर सभी अपना-अपना मत व्यक्त कर रहे थे।
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‘‘तुम्हारी क्या राय है?’’ सुरेन्द्र को चुप देखकर एक साथी ने टोका।
मैं तो आप लोगों से एकदम असहमत हूं। भाई मैं नहीं चाहता कि अंगूठी बेचने जैसा घृणित काम करते हुए पुलिस पकड़े और हवालात में सभी को चोरी के इल्जाम में बंद कर दे। मास्टरजी ने कहा था कि मिली हुई वस्तु को ईमानदारी से स्कूल में या थाने में जमा कर देना चाहिए।
सुरेन्द्र की बातें सुनकर मानों सभी को सांप सूंघ गया। उनको यह उम्मीद नहीं थी कि वह उन सबको इस तरह निराश कर देगा।
सुरेन्द्र एक सीधा-सादा और ईमानदार लड़का था। पढ़ने-लिखने में तो होशियार था ही, खेल-कूद में भी वह अच्छा था। वह अपने मास्टर जी के बातें बड़े ध्यान से सुनता था। वह कभी कोई ऐसा काम नहीं करना चाहता था जिससे उसकी प्रतिष्ठा पर कोई आंच आए।
विजय, तुम बताओ कि क्या करें? मैं तो कुछ भी नहीं
सोच रहा हूँ। सुरेन्द्र ने अपने घनिष्ठ मित्र से पूछा।
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रामू ठीक ही तो कहता है, सुरेन्द्र। सभी चाहते है कि अंगूठी को बेचकर मजे उड़ाएं। फिर तुम तो जानते ही हो कि रामू जैसे दादा से बुराई लेकर तुम चैन से नहीं रह सकोगे। विजय बोला।
लेकिन-लेकिन कुछ नहीं। तुम रामू की बात मान लो, सुरेन्द्र। जो रामू से विरोध करता है, बहुत पछताता है। विजय ने पुनः सुरेन्द्र से कहा।
मगर... मेरी आत्मा गवाही जो नहीं देती। मैं असमर्थ हूँ विजय। यदि मैं रामू की बातों से सहमत हो जाता हूं तो फिर मास्टर जी की शिक्षा का कोई महत्व नहीं रह जाता, भाई।
‘‘खुश! क्या बेवकूफी है। मास्टर जी कौन से यहां मौजूद है?’’ सुरेन्द्र कि बातेें सुनकर विजय ने कहा।
जब सुरेन्द्र टस से मस नहीं हुआ तो फिर वही हुआ जो विजय कह रहा था। रामू ने बंदर घुड़की देते हुए सुरेन्द्र से कहा। बड़े सत्यवादी बनते हो। यदि हमसे सहमत नहीं हो तो जाओ, आज से हमारा रास्ता अलग, तुम्हारा अलग।
पलक झपकते सभी रामू के साथ हो लिए। सुरेन्द्र रह गया अकेला, ठगा सा। यहां तक कि विजय भी उसके लिए नहीं रूका। सुरेन्द्र बड़े असमंजस की स्थिति में था।
उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर करे तो क्या करे? एक तरफ मित्रता तो दूसरी तरफ मास्टर जी की शिक्षा।
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अंतः उसे इस ऊहापोह से जल्दी ही मुक्ति मिल गई। उसकी नजर में उसके सारे के सारे मित्र रंगे सियार निकले। जो अपने मास्टर जी की शिक्षा का मूल्यांकन नहीं कर सके। ऐसे लोगों से मित्रता की आशा रखना बेवकूफी हैं। वह निडर होकर पूरा दादा और उसके बच्चों को जाते देखता रहा। फिर वह खुद भी पुलिस थाने की ओर अंगूठी जमा कराने चल दिया।
चलो कम से कम अंगूठी को लेकर मित्रों की असलियत तो पता चल गई। वह सोचता जा रहा था।
उधर पुलिस स्टेशन पर पहुंचकर जैसे ही उसने अंगूठी अफसर को दी, वहां अपने मास्टर जी को देखकर चैंक पड़ा। मास्टर जी मुस्करा पड़े। उन्होंने सुरेन्द्र को गले लगा लिया। सुरेन्द्र को ईमानदारी के लिए पुलिस वालों ने तो इनाम दिया ही स्कूल में भी वार्षिकोत्सव पर उसे इनाम दिया गया।
प्यारे बच्चों! जो बच्चे अध्यापकों का कहना मानते हैं और पराई चीज पर लालच नहीं करते, वे जीवन में बहुत मान-प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। ऐसे बच्चों को सभी प्यार करते हैं।